SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कायर तथा संयम में शिथिल, अल्पपराक्रमी साधक हेमन्त ऋतु की बर्फीली, कलेजे को चीरने वाली हवाओं से उसी प्रकार आहत हो जाता है, जैसे राज्यविहिन राजा । इसी प्रकार ग्रीष्म ऋतु के प्रचण्ड ताप में विक्षिप्त तथा खिन्न मानस वाला होकर उसी प्रकार सन्ताप करता है, जैसे जलाशय के अत्यल्प जल में तड़फती मछलियाँ सन्ताप करती है। शीत तथा उष्ण परीषह से पराजित साधक यह सोचकर घोर मानसिक क्लेश पाता है कि घर-बार, सुख, भोग-उपभोग, स्त्री, स्वजन आदि सभी को छोड़कर मैं यहाँ असह्य दारूण कष्टों को भोग रहा हूँ। __इसी क्रम में याचना से उत्पन्न आक्रोश उपसर्ग का वर्णन है। साधु सदैव निरवद्य भिक्षाचर्या द्वारा अपना जीवन-यापन करता है। परन्तु अभिमानी, संयम में अन्यमनस्क साधु को प्रत्येक वस्तु की याचना दु:खदायी लगती है। साथ ही अज्ञानी लोग उन्हें भिक्षार्थ भ्रमण करते देखकर यह कहते है कि 'कम्मता दुब्भगा' 'बिचारे माँग-माँग कर पेट भरके अपने पूर्वकृत कर्मों का बोझ उतार रहे है', इस प्रकार के शब्द उसे कर्णशूल की तरह खटकते है तथा भयंकर आक्रोश भी उत्पन्न करते है। उस समय साधु की मानसिक स्थिति इतनी खिन्न और दयनीय होती है, जैसे - संग्राम स्थल में तलवारों के चलने या शस्त्राशस्त्रों के उछलने पर भगौड़े सैनिकों की होती है। शास्त्रकार इन परीषहों और उपसर्गों की व्याख्या करते हुये यह बताते है कि पराक्रमी मुनि इंटकर धीरज तथा समतापूर्वक इन उपसर्गों का सामना करे। जो मुनि इन परीषहों से हार जाता है, वह अपना जीवन भी हार जाता है। अत: अज्ञानीजनों के वचन सुनकर मुनि हीन भावना से ग्रस्त न हो। डाँस, मच्छर आदि तिर्यंचकृत तथा तृणस्पर्श का परीषह भी दुर्बल मनोवृत्ति वाले साधु को इतना विचलित कर देता है कि 'न में दिठे परेलोए' वह परलोक की मान्यता से विमुख होकर सुकुमार तथा असंयमी जीवन में ही आनन्द और सुख ढूँढता है। संयमी जीवन का सबसे दुष्कर परीषह है- केश लुंचन । इन्द्रियविषयों से पराजित मुनि केशलुंचन में कदाचित विजय प्राप्त कर ले, तब भी ब्रह्मचर्य पालन में असमर्थ मुनि अपने जीवन में उसी प्रकार क्लेश पाता है, जैसे जाल में फँसी मछलियाँ। इस उद्देशक का उपसंहार करते हुये शास्त्रकार कहते है कि ये सारे परीषह 'कसिणाफासाफरूसादूरहियासया' कठोर एवं दु:सह है। इनसे विवश होकर सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy