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2. मनुष्यकृत उपसर्ग - हास्य, द्वेष, परीक्षा या कुशील सेवन के निमित्त से।
3. तिर्यंचकृत उपसर्ग - भय, द्वेष, आहार तथा सन्तान आदि की रक्षा के निमित्त से।
___4. आत्मसंवेदनकृत उपसर्ग - अंगों के परस्पर रगड़ने से, अँगुली आदि अवयवों के कट जाने अथवा सट जाने से, स्तम्भन अर्थात् रक्त संचार रूक जाने से, गिर जाने से अथवा वात, पित्त, कफ तथा इनके विकार समूह से उत्पन्नये चतुर्विध उपसर्ग भी आत्म संवेदनकृत उपसर्ग कहलाते है। देवकृत आदि चारों प्रकार के उपसर्ग अनुकूल तथा प्रतिकूल के भेद से आठ प्रकार के होते है।
प्रस्तुत अध्ययन के चार उद्देशक है। प्रथम उद्देशक की 17 गाथाओं में प्रतिकूल उपसर्गों का वर्णन है। द्वितीय उद्देशक में स्वजन, बंधु, बांधवकृत अनुकूल उपसर्गों का विवेचन है। तृतीय उद्देशक में अन्यतीर्थियों के तीक्ष्ण वचन से आत्मा में विषाद पैदा करने वाले उपसर्गों का निरूपण है। तथा चतुर्थ उद्देशक में हेतु सदृश प्रतीत होने वाले हेत्वाभासों में वस्तु स्वरूप को विपरीत रूप में ग्रहण करने से जिनका चित्त विभ्रान्त तथा मोहित हो गया है, ऐसे शीलस्खलित साधकों को स्वसिद्धान्त, युक्तिसंगत हेतुओं द्वारा यथार्थ स्वरूप का बोध देकर इन उपसर्गों में स्थितप्रज्ञ रहने का उपदेश है।
प्रथम उद्देशक में समस्त प्रतिकूल उपसर्गों का वर्णन करते हुए यह प्रतिपादित किया गया है कि साधना के पथ पर गतिशील साधक किस प्रकार इन उपसर्गों का विजेता बने । शास्त्रकार प्रथम उद्देशक के प्रारम्भ में ही उदाहरण देते हुये यह समझाते है कि नवदीक्षित साधु किस प्रकार से इन उपसर्गों से हार जाता है।
'सूरं मन्नति अप्पाणं जाव लूहं न सेवई' साधक अपने आपको तब तक ही शूरवीर मानता है, जब तक कि वह लूहं-(रूक्ष-संयम) निरतिचार संयमी जीवन का आचरण नहीं करता। यहाँ वृत्तिकार ने संयम को रूक्ष कहा है, क्योंकि यह राग तथा द्वेष रूपी स्निग्धता से रहित है।
शास्त्रकार इस सटीक उदाहरण के द्वारा उन साधुओं की ओर संकेत कर रहे है, जो साधुत्व के आचार-विचार तथा कठोर उपसर्गों को सहने की बातें तो करते है, परन्तु समय आने पर स्वयं भी उन उपसर्गों के तीक्ष्ण प्रहारों से उसी प्रकार खदेड़ दिये जाते है, जिस प्रकार महारथी कृष्ण ने कायर शिशुपाल को खदेड़ा था। आगे की गाथाओं में क्रमश: उपसर्गों की भयानकता का मार्मिक वर्णन है। 116 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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