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________________ परिज्ञा अर्थात् इसका यथातथ्य ज्ञान। साधक ज्ञ परिज्ञा द्वारा सम्यक्तया जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा द्वारा उनका धीरज तथा समतापूर्वक प्रतिकार करे। नियुक्तिकार ने उपसर्ग शब्द के 6 निक्षेप किये है - नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव। 1. नाम उपसर्ग - किसी का गुणशून्य उपसर्ग नाम रखना नाम उपसर्ग है। 2. स्थापना उपसर्ग - उपसर्ग सहन करने वाले की या सहन करते समय की अवस्था का चित्रण करना या कोई प्रतीक रखना स्थापना उपसर्ग है। 3. द्रव्य उपसर्ग - उपसर्ग कर्ता द्रव्य उपसर्ग है। यह दो प्रकार का है चेतनद्रव्यकृत - अचेतनद्रव्यकृत । मनुष्य, देव या तिर्यंच आदि सचेतन प्राणी शरीर के अंगों का घात करके जो पीड़ा देते है, वह चेतन-द्रव्यकृत उपसर्ग है। लकड़ी आदि अचित्त द्रव्यों द्वारा किया गया घात अचेतन-द्रव्यकृत उपसर्ग है। 4. क्षेत्र उपसर्ग - जिस क्षेत्र में सामान्यत: अनेक भयस्थान होते है, (जैसे - क्रूर, हिंसक जीव, चोर आदि तथा लाढ आदि देश के क्षेत्र)वह क्षेत्रोपसर्ग है। 5. काल उपसर्ग - जिस काल में एकान्त दु:ख ही होता है, वह दुःषम आदि काल कालोपसर्ग है तथा जो शीत, ग्रीष्म आदि अपने-अपने काल में जो दु:ख उत्पन्न करते है, वह भी कालोपसर्ग है। 6. भाव उपसर्ग - ज्ञानावरणीयादि कर्मों का उदय भाव उपसर्ग है। यह उपसर्ग औधिक तथा औपक्रमिक भेद से दो प्रकार का है। अशुभ कर्म प्रकृति से उत्पन्न भावोपसर्ग औघिक भाव उपसर्ग है तथा दण्ड, चाबुक आदि शस्त्र द्वारा अशातावेदनीय का उदय होना औपक्रमिक भाव उपसर्ग है। औपक्रमिक शब्द 'उपक्रम' से ही निर्मित है, जिसका अर्थ है - जो कर्म उदय प्राप्त नहीं है, उनका उदय होना। अत: औपक्रमिक उपसर्ग का अर्थ है - जिस द्रव्य का उपयोग करने से अशातावेदनीयादि अशुभ कर्मों का उदय होता है, जिससे अल्प सत्ववान साधक के संयम में विघात या विघ्न उत्पन्न होता है, उस द्रव्य से उत्पन्न बाधा को औपक्रमिक उपसर्ग कहते है। इस अध्ययन में संयमविघातकारी औपक्रमिक उपसर्ग ही विवक्षित है। यह द्रव्य से चार प्रकार का है - देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यंचकृत तथा आत्मसंवेदनकृत। इनमें से प्रत्येक के चार-चार भेद होने से कुल 16 प्रकार का है यथा - 1. देवकृत उपसर्ग - हास्य से, द्वेष से, परीक्षा या अन्य कारणों से। सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 115 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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