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________________ वही वास्तविक अर्थ में संयमी है। जिस प्रकार वणिकों, व्यापारियों द्वारा सुदूर प्रदेशों से लाई अनमोल वस्तुओं को राजा-महाराजा ग्रहण करते है, ठीक उसी प्रकार ये श्रमण भी आचार्यों द्वारा प्रतिपादित रात्रिभोजनसहित पंच महाव्रतों को स्वीकार करते है। ___ 'जे विण्णवणाहिऽझोसिया, संतिण्णेहि समं वियाहिया' जो साधक प्रार्थना (विज्ञापना) करने वाली कामिनियों के संसर्ग से मुक्त है, वे साधक संसार में होते हुये भी मुक्त ही जानना चाहिये। इस पंक्ति से यह अर्थ स्पष्ट हो जाता है कि काम में आसक्त जीवात्मा संसार ही नहीं बढ़ाता अपितु आत्मा को नरकादि गतियों के भयंकर दु:ख स्वरूप महासागर में धकेल देता है। काम विजेता श्रमण सदैव अपनी उर्ध्वदृष्टि से आत्मा को उर्ध्वदिशा की ओर ले जाता है। इस उद्देशक में सम्यक्दर्शन के साधक बाधक प्रमाणों की विवेचना भी की गयी है। असर्वज्ञदर्शी सर्वज्ञ पुरुष के कथन में दृढ़ श्रद्धान करता हुआ आयतुलं पाणेहि संजए' समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य मानता है। जैन दर्शन का यह सूत्र वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वर्तमान में जो अशान्ति, क्लेश, हिंसा का बोलबाला है, यदि व्यक्ति इस सूत्र से समस्त प्राणियों को देखे, तो न वह किसी को पीड़ा पहुँचा सकता है, न किसी के प्राणों का घात कर सकता है। आत्मतुला से संचालित जीवन से स्व-पर का भेदभाव, स्वजीवन मोह, स्वसुख में आसक्ति, परदुःख तत्परता ये समस्त विषम भाव स्वत: तिरोहित हो जायेंगे। क्योंकि आत्मदृष्टा समस्त प्राणियों में अपनी ही आत्मा का दर्शन करेगा। ये भाव ज्यों-ज्यों दृढ़ तथा धनीभूत होते जायेंगे, त्यों-त्यों आत्मा स्वत: हिंसा, चोरी आदि दुर्गुणों से उपरत होता हुआ अपनी ही शरण में चला जायेगा। मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव जहाँ धन, सम्पत्ति तथा स्वजनों को शरणभूत मानकर दु:ख पाता है, वही सम्यग्दृष्टि 'विदु मंता सरणं न मन्नती' उन सबको शरण योग्य नहीं मानता है, क्योंकि जो स्वयं चंचल, विनश्वर तथा क्षणभंगुर है, वह लक्ष्मी अथवा शरीर किसी के लिये त्राण रूप कैसे हो सकते है ? स्वजन न तो आधि, व्याधि तथा उपाधि से मुक्त कर सकते है, न जन्म, जरा, मृत्यु के दुःख से छुटकारा दिला सकते है। अत: इस संसार में कोई किसी का संरक्षक या त्राता नहीं है। एक मात्र वीतराग सर्वज्ञ कथित धर्म ही शरण रूप है। प्रस्तुत उद्देशक के साथ अध्ययन की समाप्ति करते हए शास्त्रकार गम्भीर चेतावनी देते है कि यही अवसर है बोध-प्राप्ति का। आत्मदृष्टा मुनि एक पल सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 113 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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