________________
भूतपूर्व दास रहे वर्तमान मुनि को वन्दना करे तथा वह मुनि भी अपने उस अतीत के नायक की वन्दना स्वीकार करने में लज्जा या हीनता का भाव न रखे। क्योंकि यहाँ न कोई दास है, न कोई स्वामी है, न कोई उच्च है, न कोई नीच है। जो मुनिपद में स्थित है, वे सभी मद त्यागी है, समता के आराधक है तथा अपने से संयम पर्याय में लघु मुनि द्वारा पूजनीय है। इसलिये साधु मदत्यागी बन उत्कर्ष या अपकर्ष दोनों ही स्थितियों से उपरत रहता हुआ अपने आचार-विचार में सदैव जागृत रहे।
मद त्याग के पश्चात् मुनि समत्व में स्थित कैसे रहे, इसका भी यहाँ रोचक वर्णन किया गया है। साधु जब तक मद-मान से मुक्त न होगा, तब तक साधुत्व या समता को प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि ये दोनों ही एक-दूसरे के विरोधी तथ्य है। मद का अभाव ही समता का सद्भाव है। और समता ही साधु का स्वभाव है। स्वभाव में स्थित श्रमण सदैव 'समियाधम्ममुदाहरे' (गाथा-6) अपनी इन्द्रियों तथा कषायों पर विजय प्राप्त करता हुआ समता धर्म का ही उपदेश देता है। इस प्रकार शास्त्रकार यहाँ क्रमश: जो मुनिचर्या को प्रस्तुत कर रहे है, वह एक प्रकार से मनोवैज्ञानिक भी है, क्योंकि इसकी क्रमबद्धता में व्यक्ति के मानसिक भावों का आकलन है। जो मदत्यागी होता है, वही समता का आराधक होता है और जो समभावों का साधक होता है, वही अहिंसा, अपरिग्रह आदि गुणों का धारक होता है।
इस उद्देशक में परिग्रह त्याग की प्रेरणा भी इतनी ही हृदयस्पर्शी है। धर्म का पारगामी मुनि बाह्य तथा आभ्यन्तर एवं सजीव तथा निर्जीव दोनों प्रकार के परिग्रह का त्यागी होता है। वह अतिपरिचय रूप परिगोप से पूर्णत: असंस्पृष्ट रहता है क्योंकि यह परिगोप (कीचड़) 'सुहु में सल्ले दुरूद्धरे' अर्थात् इतना सूक्ष्म तथा दुरुद्धर शल्य है, जिसमें फँस या फँस जाने पर पार पाना बहुत मुश्किल है। अत: साधू अतिपरिचय रूप कीचड़ में न फँसकर एकाकी, निर्बंध और निराबाध होकर विचरण करे। जहाँ भी सूर्यास्त हो, अक्षोभ तथा उपसर्गों से अभय होकर शून्य गृहों में निवास करे। यहाँ एकल बिहारी मुनि की चर्या का अत्यन्त कठोर वर्णन किया गया है।
तृतीय उद्देशक संयम की महिमा से मण्डित है। जिस भिक्षु ने अज्ञान अवस्था में कर्मों का बंध किया है, वह संयम के द्वारा क्षीण करके परम पद मोक्ष को प्राप्त होता है तथा जो साधक काम व कामिनी की अभिलाषा से मुक्त है,
112 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org