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________________ इसी क्रम में कर्म विपाक की भी व्याख्या की गयी है । जो श्रमण बहुश्रुत (शास्त्रों में पारंगत) होने पर भी यदि प्रच्छन्न मायाचार में रत है और मात्र मोक्ष का भाषण करता है, वह धर्म क्रियाओं से युक्त होने पर भी दाम्भिक है, जो कर्ममुक्त होने के बदले और अधिक घोर कर्म बन्धन करता है तथा कर्मों से पीड़ित होता है। साधक ऐसे अन्यतीर्थिक मायाचारियों का आश्रय लेकर लोक-परलोक को नहीं जान सकता, क्योंकि जो व्यक्ति माया, कपट, दम्भ तथा कषायों से युक्त है, वह निर्वस्त्र, निष्किञ्चन, पंचाग्नि - तप से कृश शरीर वाला, दीर्घ तपस्वी होने पर भी अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करता रहता है। अत: साधक निःशल्य बनकर समस्त अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्गों और परीषहों का जेता बने । इस उद्देशक का उपसंहार करते हुये जो उपदेश दिया गया है, वह साधुत्व में पूर्ण दृढ़ तथा अचल रहने के लिये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। माता, पिता, पुत्र, स्त्री आदि पारिवारिकजनों के दीन, करूणवचन तथा कामभोगों का प्रलोभन उसे विचलित कर सकता है। परंतु साधु स्वजनों की प्रार्थना सुनकर डिगे नहीं। मारपीट आदि से भयाक्रान्त न बने। बल्कि प्रत्येक स्थिति में वह अपने आचार-विचार में परम पराक्रम दिखायें । इस प्रकार का वीर साधक ही कर्मों का विदारण कर मोक्षरूपी महापथ को प्राप्त करता है । से द्वितीय उद्देशक के प्रारम्भ में मद त्याग का उपदेश है। जो अष्टविध मद 'मुक्त है, वही सच्चा साधक है। जिस प्रकार तक्षक (सर्प) केंचुली का त्याग करता है, उसी प्रकार साधक श्रमण गोत्र, कुल आदि का त्याग करे। इस दृष्टान्त के द्वारा जो उपदेश दिया गया है, वही साधु जीवन का लक्ष्य एवं सार है। गृहस्थ जीवन के ऐश्वर्य, राजसुख, कुल, जाति आदि का परित्याग कर देने पर भी साधु उच्च कुलवान, जातिवान, शक्तिमान्, रूपवान होने के सूक्ष्म अभिमान से मुक्त नहीं हो पाता । इस अभिमान के वशीभूत हुआ वह अन्यों की निन्दा भी कर डालता है। प्रारम्भिक गाथात्रयी में यही उपदेश संकलित है कि साधु मदान्ध होकर अश्रेयस्कारिणी निन्दा (इक्षिणी) न करे । तृतीय गाथा में एक बात विशिष्ट है कि गृहस्थ रहे प्रभुता के भावों को ऋजुता तथा लघुता में कैसे परिणत करे । जैसे किसी के घर में दास का जीवन व्यतीत करने वाला संयोग से पूर्व में दीक्षित हो जाये तथा उसी घर का नायक (मुखिया) पश्चात् संयमी बने तो वह नायक अपने उच्चकुल तथा जाति का मद न करते हुये विनयपूर्वक, बिना लज्जा के सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 111 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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