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प्रस्तुत अध्ययन में तीन उद्देशक तथा 76 श्लोक है - प्रथम उद्देशक में 22, दूसरे में 32 तथा तीसरे में 22 श्लोक है ।
नियुक्तिकार के अनुसार इन तीन उद्देशकों का प्रतिपाद्य (अर्थाधिकार) इस प्रकार है- 1
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प्रथम उद्देशक - हित-अहित, हेयोपादेय का बोध तथा अनित्यता की अनुभूति का प्रतिपादन ।
द्वितीय उद्देशक - अहंकार वर्जन के उपायों का निर्देश तथा इन्द्रिय-विषयों की अनित्यता का प्रतिपादन ।
तृतीय उद्देशक - अज्ञान द्वारा उपचित कर्मों के नाश के उपायों का प्रतिपादन, आरम्भ तथा पापासक्त प्राणियों की मनोदशा का वर्णन तथा यतिजनों के लिए सदा सुख-प्रमाद के वर्जन का प्रतिपादन |
भरत के द्वारा पीड़ित अपने सांसारिक पुत्रों को भगवान् ऋषभ ने जो संबोध दिया, शास्त्रकार उसे प्रथम गाथा से ही प्रस्तुत करते है -संबुज्झह ! किं न बुज्झह ।' अर्थात् हे भव्य ! तुम संबोधि को प्राप्त करो। तुम बोध को क्यों नहीं प्राप्त करते हो ? यहाँ बोध का तात्पर्य सम्यग्ज्ञान - दर्शन - चारित्र रूप रत्नत्रयी से है। क्योंकि यही उत्तम बोध और उत्कृष्ट धर्म है । आर्य देश, कर्मभूमि, उत्तम कुल, स्वस्थ शरीर, तेजस्वी इन्द्रियाँ, प्रखर बुद्धि सब कुछ मिलने के बाद भी 'संबोहि खलु पेच्चहा' अर्थात् बोधि प्राप्त होना दुर्लभ है। इस जीवन का क्षय (मरण) भी निश्चित है । जो व्यक्ति माता-पिता आदि के मोह में अन्ध बनता है, वह अपना जीवन हार जाता है और परलोक में भी उसे संबोधि प्राप्त नहीं होती ।
संबोधि के दो रूप है, एक द्रव्य संबोधि और दूसरी भाव संबोधि । द्रव्य निद्रा से जागना द्रव्य संबोधि है, परन्तु भाव निद्रा अर्थात् ज्ञान-दर्शन-चारित्र की शून्यता या प्रमाद से जागना भाव संबोधि है। जो साधक भाव संबोधि को प्राप्त होता है, वही संसार की अनित्यता का दर्शन कर पाता है ।
सूत्रकार यहाँ एक सुन्दर उपमा द्वारा जीवन की क्षणभंगुरता का प्रतिपादन करते है कि जिस प्रकार बंध से छुटा हुआ तालफल जमीन पर गिर जाता है, उसी प्रकार कामभोगों में आसक्त देव, असुर, गन्धर्व तथा राजा, सेठ, साहूकार आदि मनुष्य एवं समस्त तिर्यंच भी आयुष्य रूपी डोर के टूटने पर न चाहते हुये भी दु:खी मन से मरण को प्राप्त हो जाते है, अत: साधक प्रत्येक कदम पर जागृत रहे।
110 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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