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विदारणीय - विदारण करने योग्य काष्ठ |
नियुक्तिकार के अनुसार इन तीनों के नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भाव ये
चार-चार निक्षेप है। नाम - स्थापना सुगम है ।
द्रव्य विदारक वह है, जो काष्ठ आदि का विदारण करता है।
भाव विदारक वह है, जो जीव ज्ञानावरणीयादि अष्ट कर्मों का विदारण करता है।
द्रव्य विदारण है
परशु आदि साधन ।
भाव विदारण दर्शन, ज्ञान, तप तथा संयम है, क्योंकि इनमें ही कर्म विदारण का सामर्थ्य है।
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द्रव्य विदारणीय काष्ठ आदि है ।
भाव विदारणीय आठ प्रकार के कर्म है ।
चूर्णिकार तथा वृत्तिकार ने भी इस अध्ययन का अर्थ वैतालीय तथा वैदारिक के रूप में किया है। विदार का अर्थ है 'विनाश' । यहाँ राग-द्वेष रूप संस्कारों का विनाश विवक्षित है। जिस अध्ययन में राग-द्वेष के विदार का वर्णन हो, उसका नाम भी वैदारिक है। कर्म विदारण के आधार पर इसको वैदारिक मानना केवल काल्पनिक प्रतीत होता है, क्योंकि अन्य अध्ययन भी कर्मविदारण में निमित्तभूत बनते है । इस दृष्टि से इसका 'वैतालीय' नाम छन्द रचना की अपेक्षा से अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है।
इस अध्ययन की पृष्ठभूमि की चर्चा करते हुए नियुक्तिकार तथा वृत्तिकार कहते है - 3
'जब भगवान् ऋषभ अष्टापद पर्वत पर अवस्थित थे, तब भरत चक्रीश्वर द्वारा उपहत अट्ठानवे पुत्र ऋषभ के पास आकर बोले - 'भन्ते ! भरत हमें आज्ञा मानने के लिये बाध्य कर रहा है। परन्तु हमारा स्वाभिमान उसकी अधीनता स्वीकारने की आज्ञा नहीं देता। आप हमारा मार्गदर्शन करें ।' भगवान ने अंगारदाहक के दृष्टान्त के द्वारा उन्हें समझाया कि भोगेच्छा कभी शान्त नहीं होती । अग्नि में घृत डालने की भाँति और अधिक ही बढ़ती है। तथा इस अर्थ के प्रतिपादक प्रस्तुत अध्ययन को सुनाया । विषयों के कटुविपाक तथा निःसारता को सुनकर उन्मत्त हाथी के कर्ण की भाँति चपल आयु तथा पर्वतीय नदी के वेग की तरह यौवन को अस्थिर जानकर, भगवद् आज्ञा ही श्रेयस्करी है, ऐसी अवधारणा कर वे सभी पुत्र भगवान् के पास प्रव्रजित हो गये ।
सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 109
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