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________________ मानने वाले की भर्त्सना करते हुये शास्त्रकार कहते है कि जिस प्रकार जन्माध व्यक्ति नाना छिद्रों वाली नौका में सवार होकर पार होना चाहते हुये भी पार न होकर बीच में ही डूब जाता है, उसी प्रकार ये मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी श्रमण संसार सागर पार करना चाहते हुये भी मिथ्याभिनिवेश से बार-बार संसार में परिभ्रमण करते रहते है। आधाकर्मदोष तृतीय उद्देशक के प्रारम्भ में मुनि की आहारचर्या का भी वर्णन किया गया है। आहार शुद्धि पर जोर देते हुए शास्त्रकार कहते है कि अगर साधु के आहार में एक भी कण आधाकर्मी आहार का मिल जाये तो वह आहार दूषित, मिश्रित तथा अपवित्र कहा जायेगा । यदि आहार दूषित होगा तो विचार, संस्कार तथा अन्त:करण के दूषित होने की प्रबल सम्भावना रहेगी। यदि आधाकर्म दोष से दूषित आहार साधु ग्रहण करेगा तो वह गाढ़ कर्म-बन्धन के फलस्वरूप नरक, तिर्यंच आदि दुर्गतियों में दुःख को भोगेगा । उसकी दुर्दशा उस वैशालिक मत्स्य जैसी होगी, जो बाढ़ के जल के प्रभाव से सूखे तथा गीले स्थान पर पहुँचकर मांसार्थी डंक (चील) तथा कंक (गिद्ध ) आदि से सताया जाता है । मुनिधर्मोपदेश यहाँ शास्त्रकार ने मुनियों को सम्बोधित करते हुए कहा है कि अन्यतीर्थी साधु काम-क्रोधादि तथा आरम्भ - परिग्रह आदि से पराजित होने के कारण शरण योग्य नहीं है, क्योंकि पूर्व संयोग (गृहस्थ के बन्धु - बाँधव) से मुक्त होने पर भी वे अन्य परिग्रह आदि से आसक्त है। विद्वान मुनि उनके मतवादों को जानकर उनमें आसक्त न बने। इन परिग्रही तथा महारम्भीयों को छोड़कर मोक्षार्थी मुनि अपरिग्रही तथा अनारम्भी निर्ग्रन्थ भिक्षु की शरण में जाये तथा आहार संबंधी गवेषणा, ग्रहणैषणा तथा ग्रासैषणा अनासक्त, गृद्धिरहित होकर तथा मानापमान के भाव से मुक्त होकर करे । लोकवादी मान्यता तथा उसका खण्डन लोकवादियों की मान्यता है कि लोक अनन्त, नित्य, अविनाशी तथा शाश्वत है । स सदैव स के रूप में तथा स्थावर सदैव स्थावर के रूप में ही उत्पन्न होता है। पुरुष मृत्यु पश्चात् पुरुष तथा स्त्री मृत्यु पश्चात् स्त्री ही रहती है। इसका 106 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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