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________________ से बद्ध होकर दु:खों से मुक्ति का आश्वासन देते है। परन्तु जो स्वयं हिंसा, झूठ, चोरी तथा प्रपंच में रचे-पचे है, वे दूसरों की मुक्ति कैसे दिला सकते है ? 7. नियतिवाद - द्वितीय उद्देशक का प्रारम्भ नियतिवाद से ही होता है। इस वाद के अनुसार नियति ही समस्त जागतिक पदार्थों का कारण है। .. 8. अज्ञानवाद - यहाँ दो प्रकार के अज्ञानवादियों का निरूपण है। एक तो वे है, जो थोड़ा-सा ज्ञान पाकर गर्वोन्मत बन जाते है कि वे ही सर्वज्ञ है जबकि उनका ज्ञान मात्र पल्लवग्राही होता है। दूसरे वे है, जो अज्ञान को ही श्रेयस्कर मानते है, क्योंकि उनके अनुसार ज्ञान न होने पर वाद-विवाद, संघर्ष, कलह आदि प्रपंच से मुक्त रहने पर मन कषायी नहीं बनेगा। 9. कर्मोपचय निषेधवाद - इन एकान्त क्रियावादियों के अनुसार कोई भी क्रिया, भले ही उसमें हिंसादि हो परन्तु यदि वह चित्तशुद्धि पूर्वक सम्पादित होती है, तो कर्मबंध नहीं होता। इस प्रकार की कर्म चिन्ता से दूर रहने वालों को एकान्त क्रियावादी कहा गया है, जो बौद्धों का मत है। ___10. जगत्कर्तृत्ववाद - इसकी चर्चा तृतीय उद्देशक में की गयी है। जगत् की रचना के विषय में अज्ञानवादियों के प्रमुख 7 मतों का निरूपण है, जिनके अनुसार जगत् देव, ब्रह्मा, ईश्वर, प्रकृति, स्वयंभू, यमराज द्वारा कृत है या अण्डे से उत्पन्न हुआ है। 11. अवतारवाद - धर्म का ह्रास तथा अधर्म का अभ्युत्थान होने पर मुक्त-शुद्ध आत्मा का क्रीड़ा तथा प्रदोष के कारण पुन: संसार में अवतरित होना। यहाँ आत्मा धर्मशासन की पुन: प्रतिष्ठा करने के लिये रजोगुण युक्त होकर अवतार लेता है। स्व-स्व प्रवाद प्रशंसा एवं सिद्धि का दावा शास्त्रकार ने इन पृथक्-पृथक् मतवादियों को प्रावादुक कहा है, जो मात्र अपने ही मत की प्रशंसा करते हुये निरोगता तथा सिद्धि देने का दावा करते है। इनका मत कार्य-कारण विहीन तथा युक्ति रहित होने पर भी ये इसे श्रेष्ठ बताकर जगत् को भ्रमित करते है। परमत निरसन पूर्वोक्त विभिन्न वादों, एकान्त दर्शनों तथा दृष्टियों को सत्य मानते हुए सुखशीलता में आसक्त होकर अपने-2 दर्शन को ही श्रेष्ठ तथा अपना शरण (रक्षक) सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 105 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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