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________________ खण्डन शास्त्रकार ने किया है कि यदि लोक कूटस्थ नित्य है, तो जड़-चेतन में जो प्रतिक्षण परिवर्तन नजर आता है, वह प्रत्यक्ष विरूद्ध है। इस जगत में ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो सदैव एक ही रूप में विद्यमान रहे। प्रत्येक वस्तु का पर्याय रूप से सदैव उत्पाद तथा व्यय होता रहता है। दूसरी मान्यता भी अयुक्त है। यदि जो जैसा है, वह उसी रूप में उत्पन्न हो तो इस जगत में अव्यवस्थाएँ तथा कुकर्म फैल जायेंगे। दान-दया-जप-तपयम-नियम आदि अनुष्ठानों का कोई अर्थ ही न होगा। अहिंसाधर्म निरूपण लोकवाद की मान्यता से भ्रमित श्रमण अहिंसा से विरत न हो जाये एतदर्थ यहाँ अहिंसा धर्म का निरूपण किया गया है कि - इस दृश्यमान त्रस-स्थावर जीव रूप जगत की मन-वचन-काय रूप प्रवृत्तियाँ तथा बाल्य-यौवन-वृद्धत्व आदि अवस्थाएँ स्थूल है तथा समस्त जीव विपर्यय (पर्याय) को प्राप्त होते है। सभी जीवों को दुःख अकान्त (अप्रिय) है, अत: किसी भी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिये। चारित्र शुद्धि के लिये उपदेश प्रथम अध्ययन का उपसंहार करते हुये मुनि को चारित्र शुद्धि का उपदेश दिया गया है। अहिंसा विषयक गाथाओं को छोड़कर सम्पूर्ण अध्ययन में ज्ञान तथा दर्शन की विशुद्धि का प्ररूपण है। इसमें चारित्र शुद्धि का उपदेश है, जो मुनि के लिये अनिवार्य है। क्योंकि ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र इस रत्नत्रयी का सम्मिलित परिणाम ही मोक्ष है। मुनि की चारित्र शुद्धि के लिये इस गाथात्रयी में दश विवेकसूत्रों का प्रतिपादन किया गया है, जो इस प्रकार है - 1. साधु दशविध समाचारी में स्थित रहें ।। 2. आहार में गृद्ध न बने। 3. ज्ञान-दर्शन- चारित्र की सम्यक् आराधना करे। 4. चलने-फिरने-सोने, गमनागमन, शयनासन आदि के सम्बन्ध में सदैव उपयोग रखे। इर्या समिति, आदाननिक्षेपण समिति तथा एषणा समिति, इन तीनों स्थानों में सतत सचेत रहें । 6. क्रोध-मान-माया-लोभ इन चारों कषायों का परित्याग करें । सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 107 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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