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________________ 84 वीरभद्राचार्यविरचित आराधना-पताका और आतुर - प्रत्याख्यान आतुर—प्रत्याख्यान नामक शीर्षक से प्राप्त होने वाले इन तीन भिन्न-भिन्न प्रकीर्णकों में कुल 135 गाथाएं हैं, जिनमें संलेखना, समाधि-विषयक विभिन्न पक्षों की सम्यक् चर्चा की गई है। आतुर - प्रत्याख्यान भी एक पूर्ववर्ती ग्रन्थ है। यह मूल ग्रन्थ तो अति प्राचीन है, क्योंकि इसका नाम नन्दीसूत्र में मिलता है, किन्तु वीरभद्रकृत आतुर - प्रत्याख्यान आराधना - पताका से परवर्ती है। प्राचीनाचार्यकृत आराधना - पताका में भी आतुर - प्रत्याख्यानों की अनेक गाथाएं यथावत् मिलती हैं । तुलनात्मक अध्ययन के लिए हम इन गाथाओं को नीचे प्रस्तुत कर रहे हैं आतुर - प्रत्याख्यान - प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका- गाथा तुलनात्मक अध्ययन जह बालो जंपतो कज्जमकज्जं व उज्जुयं भणइ । 1 तं तह आलोएज्जा मायामोसं पमोत्तूणं ।। 2 3 ( आतुरप्रत्याख्यान, गाथा 33 ) जह बालो जंपतो कज्जंकज्जं च उज्जुयं भणइ । तं तह आलोएज्जा माया - मयविप्पमुक्को य ।। (प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 172 ) जेमे जाणंति जिणा अवराहे जेसु-जेसु ठाणेसु । हं आलोएमि उवट्ठिओ सव्वभावेणं ।। जे मे जाणंति जिणा अवराहे जेसु-जेसु ठाणेसु । ते हं आलोएउं उवट्ठिओ सव्वभावेणं ।। साध्वी डॉ. प्रतिभा ( आतुरप्रत्याख्यान - 2, गाथा 31 ) सव्वं पाणारंभं पच्चक्खामि त्ति अलियवयणं च । सव्वमदिन्नादाणं मेहुण्णं परिग्गहं चेव ।। (प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 207 ) सव्वं पाणारंभं पच्चक्खामि त्ति अलियवयणं च । सव्वमदित्तादाणं मेहुणय परिग्गहं चेव । । Jain Education International ( आतुरप्रत्याख्यान, गाथा 13 ) (प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 563) प्रवचन - सारोद्धार और आराधना-पताका प्रवचन - सारोद्धार लगभग चौदहवीं शताब्दी की आचार्य नेमीचंद्र की रचना है। यह स्पष्ट है कि प्रवचन - सारोद्धार में अनेक गाथाएं अपने प्राचीन ग्रन्थों से यथावत् या आंशिक भिन्नता के साथ है ली गई हैं। इस ग्रन्थ में अनेक गाथाएं प्राचीन आचार्यकृत् आराधना-पताका से भी मिलती हैं। तुलनात्मक अध्ययन के लिए हम इन्हें नीचे प्रस्तुत कर रहे हैं 1- चत्तारि विचित्ताइं विगई निज्जूहियाइं चत्तारि । वच्छ दुणि उ एगंतरियं च आयामं ।। (प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 10 ) चत्तारि विचित्तानं विगईनिज्जूहियाइं चत्तारि । संवच्छरे य दोन्नि उ एगंतरियं च आयामं । । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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