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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
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धिधणियबद्धकच्छा भीया जर-मरण - जम्मणभायाणं । सेलसिलासयणत्था साहिंति उ उत्तिमट्ठाई ।।
(प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 810 ) धिधणियबद्ध कच्छा अणुत्तरविहारिणो सुहसहाया । साहिंति उत्तिमट्ठे सावयदाढंतर गया वि ।।
(वीरभद्राचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 741 ) नराऽमरते वि जं तए दुक्खं । अणुचिंतेहि तच्चित्तो ।।
(प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 842 ) नार - तिरियईसु य माणुस - देवत्तणेसु संतेण । जं पत्तं सुह दुक्खं तं तह चिंतेसु तच्चित्तो ।।
(वीरभद्राचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 757 ) पियविप्पओग दुक्खं अणिट्ठसंजोगजं च जं दुक्खं । जं माणस च दुक्खं दुक्खं सारीरगं जं च ।।
(प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका गाथा 860 )
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तह नारय- तिरियत् पत्तं अनंत- खुत्तो तं
पियविरहे अप्पियसंगमे य मणुयत्तणम्मि जं दुक्खं । धणहरण - दारधरिसण- दारिद्दवद्दवकयं च ।।
(वीरभद्राचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा )
मुत्तुं पिबारसंगं स एव मरणम्मि कीरए जम्हा । अरहंतनमोक्कारो तम्हा सो बारसंगत्थो ।
(प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 897 )
अरहंतनमुक्कारो इक्को वि हविज्ज जो मरणकाले । सो जिणवरेहिं दिट्ठो संसारच्छेयसमत्थो ।।
56- दंडण - मुंडन - ताऽण - धरिसण - परिसोससंकिलेसो य । धणहरण - दारधरिसण- घरडाह-जला हि धणनासो ।।
(वीरभद्राचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 469 )
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(प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 863)
खंडन-मुंडन - ताऽण-जर - रोग विओग - सोग-संता वं । सारीर माणसं तदुभयं च सम्मं विचिंतेसु ।।
(वीरभद्राचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 766 )
तेलोक्कसव्वसारं चउगइसंसारदुक्खनासणयं । आराहणं पवन्नो सो भयवं मुक्ख सोक्खत्थी ।।
(प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका गाथा 914 ) संसारियं पि जं पयइ सुंदरं जं च अक्खयं सोक्खं । असासहणाफलं तं निदिट्ठ नट्टमोहिहिं । ।
( वीरभद्राचार्यविरचित आराधनापताका गाथा 15 )
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