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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 52 53 54 55 धिधणियबद्धकच्छा भीया जर-मरण - जम्मणभायाणं । सेलसिलासयणत्था साहिंति उ उत्तिमट्ठाई ।। (प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 810 ) धिधणियबद्ध कच्छा अणुत्तरविहारिणो सुहसहाया । साहिंति उत्तिमट्ठे सावयदाढंतर गया वि ।। (वीरभद्राचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 741 ) नराऽमरते वि जं तए दुक्खं । अणुचिंतेहि तच्चित्तो ।। (प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 842 ) नार - तिरियईसु य माणुस - देवत्तणेसु संतेण । जं पत्तं सुह दुक्खं तं तह चिंतेसु तच्चित्तो ।। (वीरभद्राचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 757 ) पियविप्पओग दुक्खं अणिट्ठसंजोगजं च जं दुक्खं । जं माणस च दुक्खं दुक्खं सारीरगं जं च ।। (प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका गाथा 860 ) 57 तह नारय- तिरियत् पत्तं अनंत- खुत्तो तं पियविरहे अप्पियसंगमे य मणुयत्तणम्मि जं दुक्खं । धणहरण - दारधरिसण- दारिद्दवद्दवकयं च ।। (वीरभद्राचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा ) मुत्तुं पिबारसंगं स एव मरणम्मि कीरए जम्हा । अरहंतनमोक्कारो तम्हा सो बारसंगत्थो । (प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 897 ) अरहंतनमुक्कारो इक्को वि हविज्ज जो मरणकाले । सो जिणवरेहिं दिट्ठो संसारच्छेयसमत्थो ।। 56- दंडण - मुंडन - ताऽण - धरिसण - परिसोससंकिलेसो य । धणहरण - दारधरिसण- घरडाह-जला हि धणनासो ।। (वीरभद्राचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 469 ) Jain Education International (प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 863) खंडन-मुंडन - ताऽण-जर - रोग विओग - सोग-संता वं । सारीर माणसं तदुभयं च सम्मं विचिंतेसु ।। (वीरभद्राचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 766 ) तेलोक्कसव्वसारं चउगइसंसारदुक्खनासणयं । आराहणं पवन्नो सो भयवं मुक्ख सोक्खत्थी ।। (प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका गाथा 914 ) संसारियं पि जं पयइ सुंदरं जं च अक्खयं सोक्खं । असासहणाफलं तं निदिट्ठ नट्टमोहिहिं । । ( वीरभद्राचार्यविरचित आराधनापताका गाथा 15 ) For Private & Personal Use Only 83 www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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