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अथवा सहवर्गी साधुओं के प्रति रागी भाव होने से कर्मो की विशुद्धि नहीं हो पाती है, न उसकी साधना ही निर्विघ्न पूरी होती है, अत: यह आवश्यक है कि वह साधक स्वगच्छ के परित्याग हेतु परगच्छ में योग्य आचार्यकीखोज करे। इस दृष्टि से यह अध्यायअतिमहत्वका है।
साध्वी श्री ने वैदिक तथा बौद्ध परम्परा में समाधिमरण की साधना का उल्लेख करते हुए जैन परम्परा की मान्यता पर विस्तार से लेखन किया है और जैन परम्परा की स्थापना को उचित माना है जिसमें स्वेच्छा से मृत्यु को आमंत्रित करना उचित नहीं मानते हुए, सहज एवं समभाव से मृत्यु का आलिंगन करना श्रेष्ठ कहा गया है। किसी भी दृष्टि से जैन परम्परा व्यक्ति को देहपात की अनुमति नहीं देती । ग्रंथ का सारतत्व यही है कि समाधिमरण की साधना मानव को भोग की आकांक्षा तथा देह की आसक्ति से मुक्ति दिलाती है। समाधिमरण आत्महत्या नहीं है। आत्महत्या करने वाला कई विषम परिस्थितियों में भटकता रहता है। उसे कोई सुगति नहीं मिलती अत: ऐसा करने वाला पापकर्म का भागी बनता है, जबकि समाधिमरण करने वाला मृत्यु से निर्भय रहकर अविचलित बनारह कर सुगतिधारण करता हैं।
कहना नहीं होगा कि प्रस्तुत शोधग्रंथ में साध्वी प्रतिभाश्रीजी ने जिस गरिमापूर्ण श्रमकौशल तथा प्रतिभा से समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है वह सर्व प्रकारेण अभिनंदनीय एवं प्रशंसनीय हैं। इसके लिए मेरा सतसहस्त्र साधुवाद एवं आशीर्वाद तथा उनके भावी जीवन के मंगलमय उत्कर्ष-यश की शुभकामनाएँ।
-प्रवर्तक गणेश मुनि शास्त्री
शुभाशीर्वाद
बहन महाराज साध्वी श्री प्रतिभाजी ने अत्यंत परिश्रम करके प्राचीन आचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा विषय पर शोध-ग्रंथ तैयार किया है यह जानकर अत्यंत प्रसन्नताहुई। जीवन की सम्पूर्ण साधना का रहस्य तो मृत्यु के समय की
साधना से ही जाना जा सकता है क्योंकियह साधना साधक को भाई म. सा. मुनि शालिभद्र जी अपने साध्य से जोड़ती है। मैं बहन महाराज जी के इस प्रयत्न
की सराहना करता हूँ और यह मानता हूँ कि वे जीवन पर्यन्त इस प्रकार के सद्ग्रन्थों का सृजन करती रहेगी। इसीशुभभावना के साथ...।
-मुनिशालिभद्र
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