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________________ शुभाशीर्वाद जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान दर्शन एवं चरित्र के साथ तपका महत्व भी विशेषरूपसे स्वीकारा किया गया है। कई दृष्टियों से तप की साधना मानव जीवन का सर्वोत्कृष्ट रूप है। उसमें भी समाधिमरण को परम उज्जवल रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। तप द्वारा समाधिमरण की प्राप्ति से दिव्यात्मा का परमात्म स्वरूप निखार पाता है। सफल एवं सार्थक जीवन की यहीधन्यताउसे परमपदपर प्रतिष्ठित करती है। राष्ट्रसंत श्री गणेश मुनि जी शास्त्री मृत्यु से सभी भयभीत होते हैं । मरना कोई नहीं चाहता, पर स्वर्ग की आकांक्षा हर एक की बनी रहती है। ऐसे बिरले ही होते हैं जो तप की साधना करते हुए समाधिपूर्वक मृत्यु का वरण करते हैं। ऐसी मृत्युधारी मनुष्य सद्गति को प्राप्त करता है और समाज में आज भी उसकी अच्छी प्रतिष्ठा एवं महत्ताबनी हुई हैं। समाधिमरण पर आगम शास्त्रों में कई जगह चर्चा हुई है, मगर कहीं भी उस पर ठीक से सांगोपांग नहीं लिखा गया। जैन आचार्यों ने अवश्य इस ओर ध्यान दिया और न केवल उसकी चर्चा की बल्कि स्वतंत्र रूप से ग्रंथों का भी प्रणयन किया और चर्चा को भी बढ़ावा दिया, मगर सर्वाधिक महत्त्वकालेखन आराधनापताकामेंदष्टिगोचर होता है। यह ग्रंथ प्राकत भाषाकी 932 गाथाओं में निबद्ध है। साध्वी प्रतिभाश्रीजी ने इस ग्रन्थ को अपने शोध का आधार बनाकर जिस गहराई से समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है वह न केवल प्रसंशनीय है अपितु उनकीशोधदृष्टि के गहन विश्लेषण, प्रज्ञा,मनिषा तथा पांडित्य को भी परिलक्षित करता सात अध्यायों में निबद्ध इस शोधग्रंथ में आराधनापताका के अनाम रचनाकाल, अनाम रचनाकार पर सार्थक ढंग से चर्चा करते हुए उसमें प्रतिपादित साधनाक्रम, विषयवस्तु तथा साधना-विधि की सांगोपांग एवं सुव्यवस्थित चर्चा की गई हैं एवं उसका रचनाकाल छठी शताब्दी निर्धारित किया है। आगम एवं आगमेतर ग्रंथों में आये समाधिकरण के उल्लेखों के साथ-साथ आराधनापताका की गाथाओं के भाव-रूप की उन ग्रंथों में छाया-परिदर्शन का तुलनात्मक प्रभाव का भी साध्वी श्रीप्रतिभाजीने वैदुष्यपूर्ण मंथन किया है। ____ प्रबंध के चतुर्थ अध्याय में सामाधिमरण की संपूर्ण प्रक्रिया की विशेष चर्चा के साथ ही यह स्पष्ट किया है कि कोई साधक स्वगण अथवा स्वगच्छ में समाधिमरण करता है तो उसमें शिष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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