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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
का विस्तार से वर्णन है । इसमें समाधिमरण के साधक द्वारा अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को समभाव से सहन करते हुए कर्मक्षय करने, उपसर्ग महाभय के प्रसंग में अनुचिन्तन करने के उपरान्त समाधि-मरण प्राप्त करने की प्रतिज्ञा का उपदेश देते हुए यह कहा गया है कि जीव अविनाशी है, वह विषम-से-विषम परिस्थितियों में भी भयभीत नहीं होता है, तिर्यक्योनि में जीवन अनेक उपसर्गों के मध्य भी उद्विग्न नहीं हुआ, अतः उपसर्गों की चिन्ता न करते हुए समाधिमरण का आश्रय लेना चाहिए ।
चतुःशरण - प्रकीर्णक- इस प्रकीर्णक में कुल सत्ताईस गाथाएं हैं। इसकी प्रथम गाथा में कुशलता हेतु चतुःशरण को ग्रहण करने, दुष्कृतगर्हा करने, सुकृत का अनुमोदन करने तथा मोक्षमार्ग अनुरूप अन्य सत्वों की क्रियाओं का भी अनुमोदन किया गया है और अन्त में चतुःशरण का फल कल्याण बताया गया है।'
प्राचीनाचार्यकृत आराधना - पताका- मंगल और अभिधेय के पश्चात् इसमें बत्तीस द्वारों में समाधिमरण या आराधना का उल्लेख है। इसमें 932 गाथाएं हैं। इसके संलेखना -द्वार में कषाय-संलेखनारूप आभ्यन्तर-संलेखना और शरीर-संलेखनारूप बाह्य-संलेखना - ऐसे संलेखना के दो भेद बताए गए हैं। अग्रिम द्वारों में संलेखना - धारक क्षपक - मुनिक का गुरु द्वारा परीक्षण, साधुओं के कर्त्तव्य का निरूपण, भक्त-परिज्ञा करने वाले की योग्यता का कथन, अगीतार्थ के समीप अनशन का निषेध, धर्मध्यान में बाधक स्थानों का निषेध, क्षपक - योग्य वसति का निरूपण, योग्य संस्तारक का वर्णन और आहार-दान के विषय में निरूपण मिलता है। अग्रिम द्वारों में गणनिसर्गद्वार, आलोचनाद्वार, व्रतोच्चारद्वार, अनुमोदनद्वार, पापस्थानव्युत्सर्जनद्वार मुख्य हैं। अठारह पापस्थान व्युत्सर्जनद्वार में प्रत्येक पाप के सन्दर्भ में एक-एक कथा दी गई है। अनशनद्वार में साकार और निराकार के त्यागपूर्वक क्षपक द्वारा अनशनग्रहण का विस्तार से निरूपण है । उनतीसवें अनुशिष्टिद्वार में अनुशिष्टि के सत्रह प्रतिद्वारों का वर्णन है। इसके पश्चात् कवच - द्वार, आराधनाफल-द्वार और अन्त में मोक्षप्राप्ति के लक्ष्यपूर्वक आराधना का माहात्म्य बताया गया है। 2
वीरभद्रकृत आराधना - पताका - समाधिमरण - विषयक प्राप्त सभी प्रकीर्णकों मे सबसे विस्तृत इस ग्रन्थ में 989 गाथाएं हैं, जिनमें समाधिमरण का सांगोपांग विवरण उपलब्ध है । मरण के भेद - प्रभेदों का वर्णन करने के पश्चात् समाधिमरण के अविचार और सविचार नामक दो भेदों में से सविचार - भक्तपरिज्ञा-मरण का विस्तृत विवेचन किया गया है। 1. परिकर्मविधि-द्वार 2. गणसंक्रमणद्वार 3. ममत्व तथा उच्छेदद्वार तथा 4. समाधिलाभद्वार में वर्गीकृत इनके उनतालीस प्रतिद्वारों द्वारा इसकी विषय-वस्तु को स्पष्ट किया गया है । भक्तपरिज्ञा-मरण के वर्णन के पश्चात् वीरभद्राचार्य संक्षेप में इंगिनीमरण तथा पादपोपगमनमरण का वर्णन करते हुए आराधनाफल का प्रतिपादन करते हैं ।
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आलोचना - कुलक- इस प्रकीर्णक में मात्र बारह गाथाएं हैं। इसमें विविध दुष्कृत्यों की आलोचना की गई है। इसमें जिनकथित ज्ञान, दर्शन और चारित्र के अतिचारों की निन्दा, मूलगुण- उत्तरगुण के अतिचारों की निन्दा, राग-द्वेष और चारों कषायों के वशीभूत जो कृत्य हैं,
1 'चतुःशरण प्रकीर्णक- 'पइण्णयसुत्ताई' - भाग-1 गाथा - 1-27 - - 309-311.
2 'आराधना पताका (प्राचीन आचार्य विरचित) - 'पइण्णयसुत्ताई' - गाथा- 1922 - भाग- 2.
3 प्रकीर्णक साहित्य मनन और मीमांसा
सम्पादक- प्रो. डॉ. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसौदिया,
पृ. 31-34.
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