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________________ साध्वी डॉ. प्रतिभा इस प्रकीर्णक में पापों का त्याग, ममत्व का विसर्जन एवं सब जीवों से क्षमापना आदि का निरूपण किया गया है। इसके पश्चात् एकत्व-भावना का चिन्तन करते हुए आत्मा को अनुशासित करने का निर्देश दिया गया है तथा अन्त में सम्पूर्ण बहिर्भावों के त्याग का उपदेश दिया गया है।' आतुर-प्रत्याख्यान-प्रकीर्णक (द्वितीय)- इसमें कुल चौंतीस गाथाएं उपलब्ध हैं। इस प्रकीर्णक के निम्न आठ द्वारों में समाधिमरण का निरूपण किया गया है- (1) उपोदघात (2) अविरति का प्रत्याख्यान (3) मिथ्यादुष्कृत (4) ममत्व-विसर्जन (5) शरीर के ममत्व के लिए उपालम्भ (6) शुभ-भावना (7) अरिहंतादि का स्मरण एवं (8) पाप-स्थानों का त्याग। अंत में मिथ्यादुष्कृत का उल्लेख है। आतुर-प्रत्याख्यान (तृतीय)- यह प्रकीर्णक आचार्य वीरभद्र द्वारा रचित है। इसमें कुल इकहत्तर गाथाएं ही समाधिमरण से संबंधित होने के कारण इसे 'अन्तकाल प्रकीर्णक' भी कहा जाता है और इसे 'वृहदातुर-प्रत्याख्यान' भी कहते हैं। इसमें सर्वप्रथम मरण के तीन भेद- (1) बाल-मरण (2) बालपण्डित-मरण (3) पण्डित-मरण का विवेचन है, उसके बाद सामायिक, सर्वबाह्याभ्यान्तर-उपाधि के प्रति ममत्व का त्याग, एकमात्र आत्मा का अवलम्बन, एकत्व-भावना, प्रतिक्रमण आलोचना और क्षमापना का निरूपण है। भक्त-परिज्ञा- एक सौ बहत्तर गाथा-प्रमाण इस ग्रन्थ में भक्त-परिज्ञा नामक समाधिमरण का विवेचन है। समाधिमरण की महत्ता के बारे में इस ग्रन्थ में कहा गया है कि समाधि-मरण अपूर्व चिन्तामणि, अपूर्व कल्पवृक्ष, परम मंत्र और परम अमृत सदृश है। इसकी जघन्य आराधना से भी साधक सौधर्म-देवलोक में महाशक्तिशाली देव होता है तथा उत्कृष्ट आराधना. से सर्वाथसिद्ध विमान को प्राप्त करता है। __संस्तारक-प्रकीर्णक- इस प्रकीर्णक में संस्तारक सम्बन्धी विवरण है। संस्तारक शब्द का तात्पर्य है- अन्तिम आराधना के प्रसंग में स्वीकार की जाने वाली दर्भादि की शय्या। इस प्रकीर्णक में एक सौ बाईस गाथाएं हैं। प्रकीर्णक के प्रारम्भ में प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर को नमस्कार करके संस्तारक-प्रकीर्णक में निबद्ध विषयों को सुनने का निर्देश दिया गया है । इस प्रकीर्णक में समाधिमरण से सम्बन्धित विवेचन ही प्रस्तुत किया गया है। गाथा छप्पन में दृष्टान्त के रूप में प्रदत्त संस्तारक करने वाली पुण्यात्माओं के नाम इस प्रकार हैं- अर्णिकापुत्र, खन्दकमुनि के पांच सौ शिष्य, दण्डमुनि, सुकौशलमुनि, अवंती सुकुमाल, कार्तिकेय, धर्मसिंह चाणक्य, अभयघोष, ललितघटा, सिंहसेन मुनि, चिलातिपुत्र, गज सुकमाल और भगवान् महावीर के वे शिष्य, जो गोशालक द्वारा फेंकी गई तेजोलेश्या से जल गए थे। अन्त में, गाथा 88 से 122 तक में संस्तारक ग्रहण करने का निर्देश दिया गया है। मरण-विभक्ति-परम्परागत रूप से मान्य दस प्रकीर्णकों में सबसे बड़े छ: सौ इक्सठ गाथा-परिमाण इस प्रकीर्णक में समाधिमरण-विषयक अन्य लघु प्रकीर्णकों में प्रतिपादित विषय-वस्तु आतूर प्रत्याख्यान - 'पइण्णय सुत्ताई- भाग-1 - गाथा 1-30 – पृ. 160-163. 'आतुर प्रत्याख्यान - 'पइण्णय सुत्ताई - भाग-1 - गाथा 1-34 - पृ. 305-308 'आतुर प्रत्याख्यान - प'इण्णय सुत्ताई - भाग-2 - गाथा 1-48 - पृ. 329-336 4 प्रकीर्णक साहित्य मनन और मीमांसा, सम्पादक प्रो.सागरमल जैन एवं डॉ.सुरेश सिसोदिया, आगम अहिंसा समता, एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर,1995 प्रकीर्णक साहित्य मनन और मीमांसा, सम्पादक प्रो.सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसौदिया – पृष्ठ -20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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