SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 50 साध्वी डॉ. प्रतिभा उनकी निन्दा, दर्प और प्रमादवश जो कृत्य किए गए हैं, उनकी निन्दा की गई है, अज्ञान, मिथ्यात्व, विमोह और कलुषता के कारण जो कृत्य किए गए, उनकी निन्दा की गई है, जिनप्रवचन तथा साधु की आशातना और अविनय की मन-वचन और काय से निन्दा की गई है, इन्द्रियों के वशीभूत होकर किए गए कार्यों की आलोचना की गई है एवं अन्तिम गाथा में आलोचना के महत्व को बताया गया है। आराधना-कुलक-प्रकीर्णकों में सबसे लघु प्रकीर्णक आराधनाकुलक में कुल आठ गाथाएं हैं। आराधक अन्तिम आराधना में समाधिमरण को स्वीकार करते हुए सभी जीवों से क्षमायाचना कर अठारह पापस्थानों का त्याग करता है। फिर भी, राग-द्वेष तथा मोहवश तीन करण और तीन योग से इस भव और परभव में जो धर्म-विरुद्ध कार्य किए गए हैं, उन दुष्कृत्यों की निन्दा करता है तथा सुकृतों का अनुमोदन करता है, साथ ही चतुःशरण ग्रहण कर एकत्वभावना में निरत रहने की प्रतिज्ञा करता है। . नन्दनमुनि आराधित आराधना-यह प्रकीर्णक संस्कृत में है। इसमें चालीस श्लोकों में नन्दनमनिकत दुष्कत गर्दा, समस्त जीव-क्षमापना, शुभभावना, चतःशरण-ग्रहण, पंचपरमेष्ठि-नमस्कार और अनशन प्राप्त करने रूप छः प्रकार की आराधना की चर्चा है। अन्त में, ऋषभादि तीर्थकरों को नमस्कार करते हुए भरत ऐरावत क्षेत्र के तीर्थकरों को नमस्कार किया गया है एंव भवभीरुओं के लिए उपर्युक्त षडविध आराधना करने का निर्देश हैं। कुशलानुवन्धी अध्ययन-इस कुशलानुबन्धी अध्ययन का दूसरा नाम चतुःशरण-प्रकीर्णक भी है । इसकी कुल तिरसठ गाथाएं हैं। प्रथम गाथा में इस प्रकीर्णक की विषय-वस्तु के नाम वर्णित है। पुनः, छः अधिकारों का पृथक-पृथक् निरूपण है- (1) सावद्ययोग की विरति (2) उत्कीर्तन (3) गुणियों के प्रति विनय (4) क्षति, की निन्दा (5) दोषों की चिकित्सा और (6) गुण-धारणा। इसके बाद जिनेश्वर के जन्म के पूर्व उनकी माता द्वारा देखे गए चौदह स्वप्नों के नाम और चतुःशरण-ग्रहण, दुष्कृत की निन्दा और सुकृत के अनुमोदन का फल वर्णित है। जिनेश्वर श्रावकप्रति सुलसा श्रावक आराधित आराधना-इस प्रकीर्णक में 74 गाथाएं हैं। इसमें प्रत्यासन्नमरण-प्रेरणा, अर्थात् अन्त सन्निकट होने पर अनशन की प्रेरणा, अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं का स्वरूप-निरूपण एवं उनकी वन्दना, नमस्कार-माहात्म्य तथा मंगलचतुष्क, लोकोत्तम-चतुष्क, शरणचतुष्क-आलोचना और व्रतोच्चरण का निर्देश है, अन्त में सर्वजीवों की क्षमापना तथा वेदना सहने और अनशन करने का उपदेश है। मिथ्यादुष्कृत-कुलक (प्रथम)- मिथ्यादुष्कृत-कुलक में आराधक द्वारा नरकादि चार गतियों के सभी प्राणियों से क्षमापना, दुष्कृत्यों की निन्दा करने का निरूपण है। पुनः, पंच-परमेष्ठियों की निन्दा के लिए क्षमापना, दर्शन-ज्ञान-चारित्र और सम्यक्त्व की विराधना, चतुर्विध-संघ की 'आलोचना कुलक 'पइण्णयसुत्ताई - भाग-2 - गाथा- 1-12 - पृ 249-250. "आराधना कुलक 'पइण्णयसुत्ताई' - भाग-2 - गाथा-1-8. नन्दनमुनि आराधित "आराधना' पइण्णयसुत्ताई भाग-2/1-63 * कुशलानुबन्धि अध्ययन - भाग-1 - गाथा-1-54 - पृ. 298-304. 'जिनेश्वर श्रावक प्रति सुलस श्रावक प्रेरित आराधना, भाग-2 पृ. 232-239 गाथा 1-63 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy