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________________ साध्वी डॉ. प्रतिभा निरयावलिया-सूत्र-निरयावलियासूत्र' में समाधिमरण के सम्बन्ध में महाबल अणगार का दृष्टांत दिया गया है। महाबल ने धर्मघोष स्थविर के पास दीक्षा अंगीकार कर चौदह पूर्व का अध्ययन किया था। उन्होंने बारह वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करने के बाद एक मास की संलेखनापूर्वक साठ भक्त का अनशन कर आलोचना एवं प्रतिक्रमण करते हुए. समाधिमरण को प्राप्त किया। वण्हिदसा नामक अध्ययन के अनसार द्वारिका नामक एक नगरी थी। उस पर श्रीक राजा राज्य करते थे। राजा बलदेव की रानी रेवती थी। उसने निषधकुमार को जन्म दिया। निषधकुमार ने युवावस्था आने पर दीक्षा को अंगीकार कर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया तथा पैंतालीस वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन किया। उसके बाद उन्होंने दो मास की संलेखना ग्रहण कर पापस्थानकों की आलोचना द्वारा आत्मशुद्धि करके समाधिभाव से कालधर्म को प्राप्त किया। उत्तराध्ययन-सूत्र-प्राचीन जैनआगम साहित्य में उत्तराध्ययन का महत्वपूर्ण स्थान है। उत्तराध्ययन में भी समाधिमरण का विवरण उसके पांचवें एवं छत्तीसवें अध्याय में उपलब्ध होता है। इसके पांचवें अध्याय में सर्वप्रथम मत्य के दो रूपों की चर्चा है- 1. अकाम-मरण तथा 2. सकाम-मरण। उसमें यह बताया गया है कि अकाम-मरण बार-बार होता है, जबकि सकाम-मरण एक बार ही होता है। उत्तराध्ययन के अनुसार अकाम (आसक्तियुक्त) मरण करने वाला व्यक्ति संसार में आसक्त होकर अनाचार का सेवन करता है, फलतः वह बार-बार जन्म-मरण करता है, सकाम-मरण एक ही बार होता है। ज्ञातव्य है कि यहाँ अकाम-मरण का तात्पर्य कामना से रहित मरण न होकर आत्मपुरुषार्थ से रहित निरुद्देश्य या निष्प्रयोजनपूर्वक मरण से है। इस प्रकार, सकाम-मरण का तात्पर्य पुरुषार्थ या साधना से युक्त सोद्देश्य मरण या मुक्ति के प्रयोजनपूर्वक मरण से है। "संति में य दुवे ठाणा, अक्खाया मरणतिया। अकाम नरणं चेव सकाम मरणं तहा। बालाणं अकामं तु मरणं असई भवे । पंडियाणं सकामं तु उक्कोसेण सइं भवे ।। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार अकाम-मरण करने वाला व्यक्ति संसार में आसक्त होकर अनाचार का सेवन करता है और काम-भोगों के पीछे भागता है। ऐसा व्यक्ति मृत्यु के समय भय से संत्रस्त होता है और हारने वाले घूत जुआरी की तरह शोक करता हुआ अकाम-मरण को, अर्थात् निष्प्रयोजन मरण को प्राप्त होता है, जबकि सकाम-मरण पण्डितों को प्राप्त होता है। संयत जितेन्द्रिय पुण्यात्माओं को ही अति प्रसन्न, अर्थात् निराकुल एवं आघातरहित यह मरण प्राप्त होता है। ऐसा मरण न तो सभी भिक्षुओं को मिलता है, न सभी गृहस्थों को। जो भिक्षु हिंसा आदि से निवृत्त होकर संयम का अभ्यास करते हैं, उन्हें ही ऐसा सकाम-मरण प्राप्त होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में समाधिमरण या संलेखना के काल आदि के सम्बन्ध में और उसकी प्रक्रिया के 'निरयावलियासूत्र - मुनि मिश्रीलाल जी मधुकर, ब्यावर उत्तराध्ययन सूत्र- सं. मुनि धुकर आगम प्रकाशन समिति ब्यावर, - अध्ययन 36 - गाथा- 251-259 तक उत्तराध्ययनसूत्र - सं. मुनि मिश्रीमलजी मधुकर-5.2/5.3. 'त्तराध्ययनसूत्र – मुनि मधुवर- अध्ययन- 36 - गाथा- 251-259. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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