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साध्वी डॉ. प्रतिभा
लगा हुआ, मोक्ष - सुख को चाहने वाला भाग्यवान् क्षपक उत्कृष्ट आराधना की विधि - अनुसार आराधना करके, कर्मों का क्षय करके, उसी भव में सिद्धि को प्राप्त करता है । इसी प्रकार, मध्यम आराधना का अनुपालन करके वह क्षपक ईशानांत में अनुत्तरादि देवत्व प्राप्त करता है । जघन्य प्रकार की आराधना करके ज्ञानी मुनि सौधर्म देवलोक में महान् ऋषिशाली देवगति को प्राप्त करता है । उत्कृष्ट आराधना से युक्त सुश्रावक अच्युतकल्प देव - विमान में जाता है तथा जघन्य आराधना से सौधर्म देवलोक को प्राप्त करता है। अधिक क्या कहें, सम्पूर्ण साधना का सार मोक्ष है, वह सब, समाधिस्थ क्षपक साधना-आराधना करके शीघ्र ही प्राप्त करता है । अन्त में उपसंहार में 926 से 932 तक 7 गाथाएँ हैं। इसमें आराधना का महत्त्व वर्णित है।
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समाधिमरण-विषयक ग्रन्थों में आराधना - पताका का स्थान एवं महत्व
जैन - परम्परा के समाधिमरण - विषयक विवेचन को लेकर हमने पूर्व में जैन आगम - साहित्य और आगमिक - प्रकीर्णक - साहित्य की चर्चा करते हुए यह स्पष्ट किया है कि आगम - साहित्य में आचारांग, उत्तराध्ययन, अंतकृद्दशा, औपपातिकसूत्र, अनुत्तरोपपातिकसूत्र आदि में समाधिमरण सम्बन्धी कुछ निर्देश हैं। इसके साथ-साथ हमने यह भी देखा है कि मरणसमाधि, चन्द्रवैध्यक, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान आदि प्रकीर्णक ग्रन्थों में भी समाधिमरण की विस्तृत चर्चा हुई है। इसके अतिरिक्त, समाधिमरण संबंधी आगमेत्तर-ग्रन्थों में भगवती आराधना, संवेगरंगशाला, आराधना - कथाकोश आदि में भी समाधिमरण सम्बन्धी विवरण उपलब्ध होते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ अभिलेख भी ऐसे हैं, जिनमें समाधिमरण का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार, समाधिमरण विषयक ग्रन्थों की इस चर्चा को करने के पश्चात् हम इस प्रश्न पर आते हैं कि समाधिमरण- विषयक ग्रन्थों में आराधना - पताका का क्या स्थान और महत्व है ?
वस्तुतः समाधिमरण - विषयक आगमिक-ग्रन्थों, प्रकीर्णकों के पश्चात् समाधिमरण की स्पष्ट चर्चा करने वाला श्वेताम्बर - परम्परा में कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ है, तो वह मरणसमाधि के अतिरिक्त प्राचीनाचार्य - विरचित सबसे प्राचीन ग्रन्थ आराधना - पताका ही है। जैसा कि हमने पूर्व में संकेत किया है कि इस आराधना - पताका की रचना मरणसमाधि, मरण- विभक्ति और भगवती - आराधना के पश्चात् ही हुई है, क्योंकि इसकी अन्तिम ग्रन्थ- प्रशस्ति में आराधना-पताका के लिए आराधना - भगवती और मरणसमाधि के नाम का भी उल्लेख हुआ है। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि अर्द्धमागधी प्राकृत-साहित्य में प्राचीनाचार्यकृत आराधना-पताका एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसके पश्चात् निर्मित वीरभद्र - कृत आराधना - पताका में इसका प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जाता है, क्योंकि उसकी अनेक गाथाएं इसके समरूप ही हैं तथा द्वारादि की चर्चा में भी बहुत कुछ समरूपता देखी जाती है। जैसा कि हमने पूर्व में भी उल्लेख किया है, यह ग्रन्थ मरणसमाधि, मरण- विभक्ति और दिगम्बर- परम्परा के भगवती आराधना के बाद लगभग छठवीं-सातवीं शताब्दी में रचित है। इसकी प्राचीनता का एक प्रमाण यह भी है कि इसकी भाषा पर महाराष्ट्री - प्राकृत का प्रभाव क्वचित् रूप में ही देखा जाता है। श्वेताम्बर - परम्परा में इसके पश्चात् समाधिमरण-विषयक ग्रन्थों में वीरभद्र - कृत आराधना-पताका और संवेगरंगशाला का क्रम आता है। ये दोनों ही ग्रन्थ क्रमशः दसवीं और बारहवीं शताब्दी में रचित हैं और इस प्राचीनाचार्यकृत आराधना - पताका से पूर्णतः प्रभावित भी हैं। ज्ञातव्य है कि दिगम्बर - परम्परा में वड्ढ - आराधना और आराधना -- कथाकोश भी प्रायः इसी काल में लिखे गए। इसके पश्चात्, यद्यपि श्वेताम्बर और दिगम्बर - परम्परा में अनेक ग्रन्थों की रचना हुई, किन्तु हमारी जानकारी में इस काल में समाधिमरण से सम्बन्धित कोई अन्य
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