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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन. आदि दुःख सहन किए गए, अब आत्मकल्याण के लिए भूख-प्यास को समभावपूर्वक सहन करने मे क्यों विचलित हो रहा है। इन भौतिक सुखों के लिए त्रिलोक में सारभूत समाधिमरण हेतु इस दुष्कर श्रमण - जीवन का विनाश मत कर, इसलिए हे क्षपक ! अपने मन की ग्रन्थियों को खोल । इन दुःखों को अपने कर्मों का फल जानकर ममत्वरहित होकर दुःख को सहन कर इस प्रकार की बुद्धि 'उत्पन्न होने पर राग-द्वेष से निवृत्त होकर दूसरों के दुःख को अपने दुःख के समान मानकर, अहिंसा-महाव्रत का पालन कर। हे क्षपक ! परीषहरूपी सेना से मन एवं काया द्वारा युद्ध करना चाहिए, उससे पराजित नहीं होना चाहिए। आहार साधना में कवचभूत होता है, आहार के बिना समाधि का इच्छुक साधक समाधि को प्राप्त नहीं कर सकता, इसलिए समाधिस्थ साधक को अनियत समय में जो दिया जाता है, वह समाधि की प्राप्ति के लिए ही होता है। जिस क्षपक-साधक ने शरीर का भी परित्याग कर दिया हो, उसकी भोजन में आसक्ति नहीं रहती, साधक केवल समाधि में स्थित रहे, इसलिए अन्त में उसे आहार दिया जाता है। जैसे योद्धा जब युद्धभूमि में जाता है, तो कवच धारण करके जाता है, रणभूमि में शत्रुओं द्वारा भेदन किए जाने पर भी कवच से वह अवद्य रहता है और युद्ध करने में समर्थ होकर शत्रु को जीत लेता है, वैसे ही समाधिस्थ क्षपक को भी परीषहरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है । 37 इकत्तीसवां नवकार - द्वार - ( गाथा 894-912) इस प्रकार, इन परीषहों को सम्यक् प्रकार से सहन करता हुआ क्षपक सब पदार्थों के प्रति आसक्तिरहित होकर मुक्ति लिए प्रयत्न करता है तथा समता से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरता है। सभी बारह अंगों के अध्ययन से उसकी परिणाम - विशुद्धि होती है। अनशन-आराधना के अन्तिम चरण में बारह अंगों रूपी श्रुतस्कन्ध का अनुचिन्तन एवं उच्चारण करने में सभी क्षपक समर्थ नहीं होते हैं। उन सब अंगो का सार नमस्कार - महामंत्र है । नामादि मंगलों में प्रथम मंगल नमस्कार ही होता है, जो सभी भयों को दूर करता है। नमस्कार - महामन्त्र इस लोक व परलोक में दुःखों का हरण करता है और भवसागर से पार कराता है। अरिहन्तों को नमन, सिद्धों को नमन, आचार्यों और उपाध्यायों को नमन एवं सभी साधुओं को नमन- ये पंच नमस्कार पापों का नाश करने वाले हैं, अतः सब कुछ छोड़कर मरणकाल में इन्ही की शरण ग्रहण करने योग्य है। अरिहन्तादि को वन्दन- नमस्कार करने से जीवन हजारों भवों से छुटकारा पाता है तथा भावपूर्वक इस नवकार का जाप करने से साधक को को बोधिलाभ की प्राप्ति होती है । पंचपरमेष्ठी का जो श्रद्धा से, अन्तर - हृदय से अपने मन में जाप करता है, उसे मोह व रागरूपी पिशाच नहीं जीत सकता तथा वह संसार-सागर से तर जाता है। अनशन से युक्त क्षपक पंच नमस्कार - मंत्र के श्रेष्ठ अर्थ के श्रवण से व्रतहस्ति स्कंधारूढ़ होकर मरण-रण में दुर्जय हो जाता है। नवकार मंत्र कल्याणकारी है, मंगलरूप है, बारह अंगों का सार है, जानने योग्य है, ध्यान करने योग्य है, जप करने योग्य है । अन्तिम श्वास के समय जब मंत्रों का उच्चारण करने में क्षपक असमर्थ हो जाए, तब क्षपक का निर्यापक द्वारा देह से रागादि को छोड़कर वैराग्य-पूरित हृदय से यह मंत्र भावपूर्वक सुनना चाहिए । बत्तीसवां आराधना - फल-द्वार - ( गाथा जो शुभ ध्यान, और शुभ लेश्या को प्राप्त करती है। तीनों लोकों का सार, Jain Education International 913 - 925) युक्त है, वह पवित्र आत्मा निर्विघ्न रूप समाधिमरण चतुर्गति संसार में दुःख का नाश करने वाला, आराधना में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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