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साध्वी डॉ. प्रतिभा
प्राणातिपात-विरमण-व्रत की पांच भावनाएं(1) ईर्या-समिति का पालन करते हुए साधक यतना से चलें। (2) आहारादि की प्राप्ति या अप्राप्ति में समभाव रखें। (3) आदान-भाण्ड, मात्रक आदि उपकरणों के उठाने-रखने आदि में यतना करें। (4) संयम-समाधि, अर्थात् मन का संयम रखें। (5) वाणी का संयम रखें। मृषावाद-विरमण-व्रत की पांच भावनाएं(1) अहास्य-सत्य- हंसी-मजाक से रहित होकर सत्य वचन बोलें। (2) सूत्रानुसार भाषण- आगम की आज्ञा के अनुसार सत्य भाषण करें। (3) क्रोध का त्याग- क्रोध का त्याग कर वचन बोलें। (4) लोभ का त्याग - लोभ का त्याग कर सम्भाषण करें। (5) भय-त्याग- भय का त्याग करके बोलें। अदत्तादान-विरमण-व्रत की पांच भावनाएं(1) स्वयमेव ही याचनापूर्वक ग्रहण करें। (2) मतिमंत व सुवाचिरत ज्ञानी के घर में निवास करें। (3) स्वयं ग्रहण करने का त्याग करें। (4) दाता की अनुमतिपूर्वक पानी एवं भोजन ग्रहण करें। (5) साधर्मिकों से याचित ग्रहण करें।
मैथुन-विरमण-व्रत की पांच भावनाएं
आहारगुप्त- आहार की मात्रा में संयम रखें। 2- अविभूषितात्म - शरीरादि को श्रृंगारित नहीं करें। 3- स्त्री को रागभाव की दृष्टि से नहीं देखें। 4
स्त्री से अति परिचय नहीं करें। 5- बुद्धिमान मुनि क्षुद्र कथा न करें, अपितु धर्मानुपेक्षी होकर ब्रह्मचर्य का सेवन करें।
अपरिग्रह-व्रत की भावनाएं- मुनि मनोज्ञ एवं पापकारी शब्द, रूप, रस, गन्ध व स्पर्श का सेवन नहीं करें, गृहस्थों से द्वेषभाव भी नहीं रखें, मुनिजन तो इन्द्रियों का दमन करने वाले संसार से विरक्त अकिंचन होते हैं।
जिनके द्वारा इन पच्चीस भावनाओं का अप्रमत्ततापूर्वक अर्थात् प्रमाद से रहित होकर सम्यक् रूप से पालन किया जाता है, उन्हीं के व्रत अखण्डित रहते हैं। अनुशिष्टि सपक-वक्तव्य -(गाथा 752-758) इस प्रकार, अनुशासन-अमृत का पान करके सम्यक् प्रकार से भोगों से निवृत्त हुआ क्षपक गुरु को वन्दन करके धैर्य सहित ऐसा कहता है- भंते! संसार-सागर को पार करने के लिए मैं दृढ़ काष्ठ-फलक के समान अनुशिष्टि की इच्छा करता हूँ। आपने जैसा भी कहा है, वह मेरे लिए हितकर ही है। फिर, वह कहता है- जिससे आत्मा तर जाए, जिसमें आपको परम सन्तोष की प्राप्ति हो, जिससे गण व संघ का परिश्रम सफल हो, जिससे अपने गण व संघ की कीर्ति विश्रुत हो, संघ के प्रसाद से मैं वैसी ही आराधना करूंगा । अधिक कहने से क्या ?
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