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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
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4- एकत्व-भावना- आराधना-पताका के एकत्व-भावना के विषय में यह चिन्तन किया गया है कि जीव अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही कर्मों को बांधता है, अकेला ही. भोगता है, अकेला ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, अपने शुभाशुभ कर्मों का उपभोग भी अकेला ही करता है, मृत्यु के आगमन प पर सम्पूर्ण सासारिक-वैभव तथा परिवार का परित्याग करके शोक करते स्वजनों के मध्य से अकेला ही प्रयाण करता है, उस समय पिता, पुत्र, स्त्री, मित्रादि कोई भी उसके साथ नहीं जाते हैं- इस प्रकार एकत्व-भावना का स्मरण करना चाहिए। 5- अन्यत्व-भावना- जगत् के सम्पूर्ण पदार्थों से स्वयं को भिन्न समझना और इस भिन्नता का पुन:-पुनः विचार करना ही अन्यत्व-भावना है। इस संसार में कौन अपना है, अर्थात् सभी पराए या अन्य हैं, आत्मा से यह शरीर भिन्न है तथा संसार के समस्त भौतिक पदार्थ और बंधु-बांधव के रिश्ते-नाते सभी हमसे भिन्न हैं- इस तरह, साधक को गज सकमाल की भांति अन्यत्व-भावना का चिन्तन करना चाहिए। 6- अशुचि-भावना- यह शरीर अशुचि का भण्डार है, रस, रक्त, मांस, मेद, हड्डी, मज्जा और वीर्य- इन सात धातुओं से बना शरीर सड़न, गलन, विध्वंसन स्वभाव वाला है, अनेक उपायों द्वारा भी शरीर की अपवित्रता को दूर नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह शरीर अशुचि से भरे हुए घड़े के समान है- इस प्रकार, अशुचि-भावना का चिन्तन करके शरीर के प्रति ममत्व का त्याग करना चाहिए। 7- आश्रव-भावना-बन्धन के कारणों पर विचार करना आश्रव-भावना है। अव्रत, कषाय. इन्द्रिय-क्रिया व अशुभ योगों द्वारा जीव सतत कर्मबंध करता रहता है, अतः क्षपक को आश्रव-द्वारों का निरोध करना चाहिए। 8- संवर-भावना-पांच समिति, तीन गुप्ति का पालन करना, बाईस परीषहों पर विजय प्राप्त करना, पांच चारित्रों का पालन करना, दस प्रकार के यतिधर्मों का पालन करना- साधक को आश्रव का निरोध करने के लिए इस प्रकार संवर-भावना का चिन्तन करना चाहिए। जिन-जिन कारणों से आश्रव की उत्पत्ति होती है. उन-उन कारणों का निरोध करना ही संवर है। 9- निर्जरा-भावना-पूर्वसंचित कर्मों का क्षय करना ही निर्जरा है । निर्जरा के विषय में चिन्तन करना ही निर्जरा-भावना है। व्यक्ति बारह प्रकार के तपों द्वारा अपने कर्मों की निर्जरा कर सकता है | इस प्रकार, निर्जरा-भावना का चिन्तन करना चाहिए। 10- लोकस्वरूप-भावना-लोक की रचना, आकृति, स्वरूप आदि पर विचार करना लोकस्वरूप-भावना है। 11- उत्तम गुण-भावना-जिन-धर्म प्राप्त करना रगी प्रकार मुश्किल है, जिस प्रकार चिन्तामणि-रत्न प्राप्त करना दुर्लभ है। जिसे यह जिन-धम प्राप्त हो जाता है, वह धन्य हो जाता है। इस हेतु जगत् में उत्तम-गुण-भावना को सम्यक् रूप से भावित करना चाहिए। 12- बोधिदुर्लभ-भावना-देवताओं की सम्पत्ति पाना सुलभ है, एकछत्र पृथ्वी पर स्वामित्व करना भी सुलभ है, किन्तु इस संसार में जिनधर्म का बोध होना दुर्लभ है- इस प्रकार चिन्तन करना चाहिए। इन बारह ही भावनाओं का विशद्ध भावना से चिन्तन करना चाहिए और अन्य भी पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं का चिन्तन करना चाहिए। 17. पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनारूप-अनुशिष्टि-प्रतिद्वार -(गाथा 745-751)
इसमें निर्यापकाचार्य क्षपक-साधक को, पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं का किस प्रकार पालन करना चाहिए, इसे समझाते है।
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