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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन साक्षात् देवगण भी यदि मेरी साधना में विघ्न उत्पन्न करें, तो भी आपके चरणों के अनग्रह-गण से वे ऐसा करने में समर्थ महीं होगें. अर्थात मझे साधना से विचलित = भूख-प्यास अथवा वात-पित्त-कफ आदि रोगों के कारण मेरे ध्यान में बाधा उत्पन्न नहीं होगी, अथवा इन्द्रिय-विषय एवं कषाय आदि भी मेरी साधना में विघ्न उपस्थित ही नहीं करेंगे। चाहे मेरुपर्वत अपने स्थान से विचलित हो जाए, परन्तु फिर भी मैं आपकी कृपा के प्रसाद से उपसर्ग आने पर भी नियम का लोप नहीं करूंगा । तीसवाँ कवचद्वार - (गाथा 759-893) इसमें निर्यापकाचार्य को कहा गया है कि वह, क्षपक-साधक को समाधि बनी रहे- ऐसा प्रयास करे | उस क्षपक को, जैसा उसके लिए हितकर हो, वैसा ही पेय पदार्थ, जो न कडुआ हो, न कसैला, न ज्यादा ठण्डा हो, न ज्यादा गर्म, दिया जाना चाहिए। क्षपक जब शक्तिहीन हो जाए. तो उसको पेय-पदार्थ का भी त्याग करा देना चाहिए। उसके बाद, अगर क्षपक के शरीर में वेदना उत्पन्न हो जाए, तो चिकित्सा-विदों के द्वारा जानकर, उनकी वेदना दूर हो जाए- इसके लिये प्रयास भी करना चाहिए। वेदना दूर ना हो, तो निर्यापकाचार्य ऐसा प्रयास करे कि वह क्षपक-साधक पूर्ववत् चेतना-स्थिति में आ जाए। वह निर्यापक उस क्षपक को चेतना में लाने के लिए उससे इस प्रकार प्रश्न करे- तुम कौन हो? तुम्हारा नाम क्या है ? तुम कहां हो ? इस समय क्या काल है ? तुम क्या कर रहे हो? तुम कहां बैठे हो ? इस प्रकार निर्यापक क्षपक को स्मरण कराए। क्षपक की समाधि बनी रहे- इस प्रकार हित-भावना रखे। प्रयास करने के बाद भी कोई क्षपक तो एक बार में ही कर्मों का उपशमन कर पूर्ववत् स्थिति में आ जाता है और कोई क्षपक कर्म के उदय के कारण परीषहों से पराजित होकर क्षमा याचना करता है, क्रोध करता है, अपनी प्रज्ञा का भेदन करता है। एसे क्षपक के साथ कटुक या कठोर वचन नहीं कहना चाहिए, उसे डराना भी नहीं चाहिए, उसकी आशातना भी नहीं करना चाहिए। कठोर वचन से प्रताड़ित करने पर क्षपक असमाधि को भी प्राप्त कर सकता है, तब उस क्षपक को गुरु के द्वारा हित, मित, प्रिय वचनों से समाधि में स्थित करना चाहिए। गुरु इस प्रकार कहे- हे धीर ! तुमने समाधि को धारण किया है, तुम रोग से, परीषह से व्याकुल मत बनो। धैर्य को धारण कर परीषहों पर विजय प्राप्त करो। जिस प्रकार युद्धभूमि में जाने वाला वीर योद्धा शत्रु के भयंकर प्रहारों से घबराकर भी अपना मुख नहीं मोड़ता है, उसी प्रकार र विपत्ति आने पर भी मन में कायरता के भाव नहीं लाता है। महाव्रती भी मेरु-पर्वत के समान अडिग व सागर के समान गम्भीर होते हैं, अतः तुम उस महाप्रतिज्ञा का स्मरण करो, जो तुम्हारे द्वारा संघ-साक्षी से विधिपूर्वक ग्रहण की गई कि मैं जीवन-पर्यन्त चारों आहार का त्याग करता हूँ। इस प्रकार, चेतना आने के बाद कौन साधक नियमों का उल्लंघन करेगा। हे क्षपक ! तुमने महासमुद्र को तो पार कर लिया है, अब तुम्हारे द्वारा केवल गोपद, अर्थात् थोड़े ही हिस्से को तैरना शेष है । मेरू-पर्वत को भी पार कर दिया है। अब तो बहुत कम भूभाग शेष है। तुम अनन्तकाल तक संसार में भटके हो, उससे मुक्त होने के लिए ऐसी दुर्लभ सामग्री फिर कभी सुलभ नहीं होगी। जिस समाधि-भाव को पाने के लिए गणधर, चक्रवर्ती, मुनिगण, श्रावक-श्राविकाएं एवं तिर्यच भी प्रयत्न करते हैं, पर्यन्ताराधना करके, कृतकृत्य होकर श्रुतसागर में अवगाहन करते हुए सर्वलब्धियों को प्राप्त करके अन्त में भक्त-परिज्ञा में प्रव्रजित होते हैं, जो भी मुनिश्रेष्ठ परीषहों पर विजय प्राप्त करके समाधिमरण को प्राप्त करते हैं, उन मुनियों का वर्णन सुनो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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