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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन अन्य अपेक्षा से प्रमाद के पाँच प्रकार हैं- (1) मद्यपान ( 2 ) इन्द्रियों के विषयों का आसक्तिपूर्वक सेवन करना (3) कषाय (4) निद्रा व (5) विकथा । ये पाँच प्रमाद जीव को संसार में परिभ्रमण कराते रहते हैं । धर्म-साधना करने के समय को व्यक्ति प्रमाद में गंवा देता है । 29 प्रमाद के कारण चौदह पूर्वधारी एवं श्रुतकेवली महान् आचार्य को भी अनन्त - काल तक निगोद (जैविक - विकास की निम्न अवस्था ) में रहना पड़ता है। आहारक - लब्धिधारी, मनः पर्यवज्ञानी तथा उपशान्तमोह वाले साधक भी प्रमाद के वशीभूत होकर चारों गतियों में भटकते हैं, अतः विचक्षण पुरुषों को प्रमाद का सम्पूर्ण रूप से त्याग कर दर्शन - ज्ञान - चारित्र, अर्थात् रत्नत्रय की आराधना करनी चाहिए । 11. तपाचरण - अनुशिष्टि - प्रतिद्वार - ( गाथा 693-698) इसमें निर्यापकाचार्य क्षपक साधक को तप के बारे में समझाते हुए कहते हैं- हे साधक ! तपस्या द्वारा तुम अपने कर्मों की निर्जरा करो। जैन आगम - साहित्य में तप को मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त किया गया है, प्रथम- बाह्यतप एवं दूसरा आभ्यन्तर -तप । हे साधक ! तुम अपनी देह से भी ममत्व का त्याग कर तथा प्रमादरहित होकर अनासक्त-भाव से तप का आचरण करो । तपस्वी इस लोक व परलोक में अपने अच्छे कार्यों द्वारा जगत् में पूजा जाता है । इन्द्र, नरेन्द्र, देवेन्द्र का सिंहासन भी तपस्वी की तपस्या से प्रकम्पित होने लगता है । ऐसे तपस्वी के चरणों में तो देवता भी नतमस्तक हो जाते हैं। मनुष्य लिए तप उत्तम कामधेनु व चिन्तामणि - रत्न के समान है। तप ही समस्त अशुभ पापरूप मैल को हरण करने वाले सुन्दर तीर्थ के समान है । अनेक प्रकार के दुःखों से संत्रस्त, दुर्गति में पड़े हुए जीवों के लिए तप ही त्राणदाता होता है। तप से व्यक्ति निर्भय होता है । तप व्यक्ति के अभ्युदय का आधार तथा अक्षय सुख देने वाला है। यह मोक्ष की सीढ़ी है। इस प्रकार, संयम में स्थित साधकों को चाहिए कि वे तप को अति हितकर जानकर अपनी आत्मा को नित्य ही तप से भावित करते रहें । 12. रागादि - प्रतिषेध - अनुशिष्टि-प्रतिद्वार - ( गाथा 699-702) इसमें निर्यापकाचार्य क्षपक-साधक को रागादि की व्यर्थता समझाते हुए कहते हैं- तुम राग-द्वेष के विजेता बनो। क्रोध, मान, माया, एवं लोभ के कारण आत्मा चतुर्गति संसार में परिभ्रमण करती रहती है। यदि परमपद (मोक्ष) पाने की इच्छा है, तो इनका त्याग करो। संसार में देवताओं एवं असुरों को भी जिन राग-द्वेषरूपी शत्रुओं ने हराकर अपने वश में कर लिया है, उन राग-द्वेषरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करो। जितनी हानि विष, शत्रु वेताल, पिशाच भी तुम्हारे शरीर को नहीं पहुंचाते हैं, उतनी हानि राग-द्वेषरूपी शत्रु पहुंचाते हैं। जो राग-द्वेष और कषायों की आग में फँस जाता है, उसके जीवन में सभी प्रकार की विपत्तियां आ जाती हैं। जो व्यक्ति राग-द्वेष आदि में नहीं फँसता है, उसके सारे दुःख भी सुख में परिणत हो जाते हैं। 13. निदानवर्जन - अनुशिष्टि-प्रतिद्वार - ( गाथा 703 - 712) प्राचीनाचार्यकृत आराधना - पताका का तेरहवाँ प्रतिद्वार निदानवर्जन- अनुशिष्टिरूप है। इसमें साधक को निम्न नौ प्रकार के निदानों (कामनाओं) से बचने का निर्देश दिया गया है 1. राजा का पद प्राप्त करने की कामना । 2. अग्र आदि उच्च कुलों में जन्म लेने की कामना । 3. स्त्रीरूप में जन्म लेने की कामना । 4. पुरुषरूप में जन्म लेने की कामना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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