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________________ 28 ( 18 ) मल - परीषह - शरीर या वस्त्र में पसीने से, अथवा रज आदि के कारण मैल आदि जम जाने से दुर्गन्ध उत्पन्न हो, तो भी उद्विग्न न होकर समभाव से सहन करे । ( 19 ) सत्कार - परीषह - जनता द्वारा मान-सम्मान के प्राप्त होने या न होने पर भी प्रसन्न या खिन्न न होकर समभाव रखे। साध्वी डॉ. प्रतिभा (20) प्रज्ञा - परीषह - शिष्यों को बार-बार सूत्रों का अर्थ बताना पड़े, तो अधीर होकर विद्वान् मुनि यह विचार नहीं करे कि इससे तो इनका अज्ञानी होना अच्छा होता। (21) अज्ञान - परीषह - मन्दबुद्धि के कारण शास्त्रों का अध्ययन न कर पाने से खिन्न हुए बिना मुनि परिश्रमपूर्वक अपनी साधना में लगा रहे । (22) दर्शन - परीषह - अन्य मतावलम्बियों के चमत्कार व आडम्बर को देखकर उनका अनुमोदन नहीं करे एवं स्वयं के दर्शन को हीन नहीं माने। इस प्रकार, क्षपक साधक बाईस परीषहों को सहन करने की कोशिश करे एवं कर्मों की निर्जरा करे | इन बाईस परीषहों को सहन करने वाला साधक आराधक कहलाता है। 9. उपसर्ग - सहन - अनुशिष्टि-प्रतिद्वार - ( गाथा 674–684) इसमें निर्यापकाचार्य क्षपक साधक को, उपसर्ग आने पर भी मन में खिन्नता का भाव न आने पाए - इस तथ्य को समझाते हुए कहते हैं- हे वीर साधक ! चार प्रकार के उपसर्ग सहन करो। देवताओं द्वारा, या मनुष्यों द्वारा, या तिर्यंच द्वारा दिए गए उपसर्ग सहन करने योग्य हैं। अट्टहास, प्रद्वेष, विमर्ष, विमाया- ये चार दैवी - उपसर्ग हैं। देवकृत उपसर्ग में अट्टहास नामक उपसर्ग के सम्बन्ध में उंडेरासुर का दृष्टान्त दिया गया है। प्रद्वेषोपसर्ग में संगमदेव का कथानक वर्णित है । विमर्ष, नाराजी, अप्रसन्नता आदि उपसर्ग एवं विमाया (देवीयमाया) उपसर्ग में भी संगमदेव का दृष्टान्त द्रष्टव्य है। इसी प्रकार, मनुष्योपसर्ग में हास्य में क्षुद्र का प्रद्वेष (अतिद्वेष) में सोमिल द्विज का, विमर्ष (अप्रसन्नता) में चन्द्रगुप्त एवं कुशील प्रतिसेवना में ईर्ष्यालु भार्या का या परदेशी राजा की पत्नी सूर्यकान्ता का दृष्टान्त विचारणीय है । तिर्यंचोपसर्ग में भय का श्वानादि ( कुत्ते आदि) के काटने का भय, प्रद्वेष में चंडकौशिक सर्प द्वारा प्रभु को डंक मारने का कथानक, आहार में व्याघ्री का, सन्तान - भक्षण एवं सन्तान - रक्षण में तुरन्त बच्चे को जन्म देने वाली गाय का कथानक जानना चाहिए । आत्म-संवेदनरूप उपसर्गों में घर्षण में पड़े हुए रज के कण का घर्षण, या आँख में मांस बढ़ने से जो घर्षण होता है वह, प्रपतन में चलते हुए व्यक्ति का गिर जाना व हड्डी आदि का टूट जाना, अंगों का क्षत-विक्षत हो जाना, स्तंभन में पांव का सुन्न हो जाना, लकवा मार जाना, श्लेषन में वात, पित्त, कफ आदि जन्य विविध रोगों को जानना चाहिए । कर्मफल का उदय आने पर ये सोलह प्रकार के उपसर्ग जीवन में आते हैं । उपसर्ग आने पर क्षपक को समता - भाव धारण करना चाहिए तथा चित्त में उद्वेग न लाकर समाधि में स्थिर रहना चाहिए । 10. अप्रमाद - अनुशिष्टि - प्रतिद्वार - ( गाथा 685-692) इस द्वार में निर्यापकाचार्य क्षपक साधक को समझाते हुए कहते हैं- हे साधक ! जन्म - जरा - मृत्यु से पार लगाने वाले सैकड़ों-हजारों वर्षों प्राप्त जिनवचन की क्षणमात्र भी अवहेलना मत कर। मुनिजनों ने प्रमाद आठ प्रकार के कहे हैं- (1) अज्ञान (2) संशय (3) मिथ्याज्ञान (4) राग ( 5 ) द्वेष (6) मतिभ्रंश ( 7 ) धर्म में अनाचार एवं ( 8 ) मन-वचन काया की प्रवृत्तियों का दुरुपयोग करना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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