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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 27 (1) क्षुघा-परीषह- भूख की वेदना से पीड़ित होता हुआ भी क्षपक-साधक अशुद्ध आहार ग्रहण न करे, बल्कि क्षधा-वेदना को समभावपूर्वक सहन करे। (2) तृषा-परीषह- भयंकर प्यास में व्याकुल बना मुनि स्वप्न में भी सचित्त जल पीने की इच्छा न करे, वरन् नरक के जीवों की वेदना एवं महापुरुषों के कष्टमय जीवन का चिन्तन करते हुए पिपासा-परीषह को सहन करे। (3) शीत-परीषह- शीतऋतु में शीत-परीषह के निवारण हेतु अधिक वस्त्रों को ग्रहण न करे एवं अल्प वस्त्र के कारण अग्नि का ताप भी न ले। (4) उष्ण-परीषह- ग्रीष्मकाल में भीषण गर्मी से शरीर में व्याकुलता होने पर भी मुनि स्नान, अथवा पंखे की हवा आदि से गर्मी को शान्त करने का प्रयत्न न करे, बल्कि उसे समभाव से सहन करे। (5) दंश-मशक परीषह-डाँस, मच्छर आदि के द्वारा डंक मारने पर दुःख उत्पन्न हो, तो भी क्रोध या आवेग में आकर उन्हें त्रास न दे, वरन् उपेक्षा-भाव रखे। (6) अचेल-परीषह- वस्त्र के अभाव की चिन्ता न करे, न वीभत्स वस्त्र धारण करे। (7) अरति-परीषह- मुनि-जीवन में सुख-सुविधाओं का त्याग होता है, फिर भी यदि उनके भोग का विचार उत्पन्न हो एवं संयम में रुचि न रहे, तो भी मन लगाकर संयम-धर्म का पालन करे। (8) स्त्री-परीषह- स्त्री-संसर्ग को आसक्ति, पतन और पतन का कारण जानकर स्त्री- संसर्ग की इच्छा न करे और उनसे दूर रहे। साध्वियों के सन्दर्भ में यहाँ पुरुष-परीषह समझना चाहिए। (9) चर्या-परीषह- चातुर्मास के अतिरिक्त शेषकाल में मुनि को गांव में एक रात्रि एवं नगर में पाँच रात्रि से अधिक स्थिरवास करने का निषेध है, अतः अनेक प्रकार के कष्टों को समता से सहन करते हुए सदैव भ्रमण करे। (10) निषद्या-परीषह- विषम अथवा कंकरीली भमि में स्वाध्याय ध्यान आदि के लिए एकासन में बैठना पड़े, तो भी मन में बुरे विचार न लाए एवं दुःखी न होते हुए उसे समभावपूर्वक सहन करे। (11) शय्या-परीषह- मुनि को ठहरने अथवा सोने के लिए विषम भूमि हो, तो कोमल शय्या का विचार नहीं करे, बल्कि उस कष्ट को सहन करे। (12) आक्रोश-परीषह- यदि कोई भी मुनि को ताड़ना-तर्जना आदि द्वारा कष्ट दे, अथवा कर्कश शब्द या कठोर वचन कहे, तो भी मुनि उसे सहन करे। (13) वध-परीषह- यदि कोई मुनि को लकड़ी या हाथ आदि से मारे, अथवा अन्य किसी शस्त्र से वध करे, तो भी वह उस परीषह को सहन करे। (14) याचना-परीषह- मान और अपमान की भावना से रहित होकर मुनि भिक्षावृत्ति करे। आवश्यक वस्तुएँ सुलभता से प्राप्त नहीं होती है- ऐसा विचार कर वह मन में दुःखी न हो, बल्कि बयालीस दोषों से रहित शुद्ध आहार की गवेषणा करे। (15) अलाभ-परीषह- मुनि को लाभान्तराय-कर्म के उदय से आवश्यक (वस्त्र-पात्र) आदि नहीं ने पर तथा आहार की प्राप्ति नहीं होने पर लाभान्तराय-कर्म का उदय जानकर परीषह को सहन करे। (16) रोग-परीषह- चिकित्सा के अभाव में रोग की पीड़ा से दुःखी न होकर मुनि समता से बीमारी को सहन करे। (17) तृण-परीषह- तृण आदि की शय्या में निद्रा लेने से तथा मार्ग में नंगे पैर चलने से तृण या काँटे आदि के चुभने से होने वाली वेदना को कर्मों की निर्जरा का हेतु जानकर सहन करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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