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________________ 26 क्रोध में उन्मत्त व्यक्ति कार्य- अकार्य को नहीं देखता है, गलत रास्ते पर जाता है, सही मार्ग को छोड़ देता है, मित्र को भी शत्रु बना लेता है, अतः हे क्षपक ! यदि तुम जिनमत को मानते हो, तो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को हरने वाले, सब दुःखों की मूल जड़ इस क्रोध का परित्याग कर दो । क्रोध से कलह एवं वैर बढ़ता है तथा मरने के बाद परलोक में भी भयंकर दुःख भोगना पड़ता है। सुख का मूल धर्म है, धर्म का मूल क्षमा है। क्षमा महान् विद्या के समान सभी दुःखों का हरण करती है। क्रोधी व्यक्ति दुःखी होता है, जबकि क्षमावान् व्यक्ति के चरणों में देवता भी नमस्कार करते हैं । अभिमानी व्यक्ति भी सभी से द्वेष करता है । वह इस लोक व परलोक में कलह, भय, दुःख व अपमान को प्राप्त करता है । अहंकार से रहित व्यक्ति सज्जनों का प्रिय होता है । अहंकार से रहित व्यक्ति ज्ञान, यश एवं अर्थ-लाभ प्राप्त करता है तथा अपने कार्य को सिद्ध करता है, सरल व्यक्ति का कोई भी कार्य असिद्ध नहीं होता है तथा विनय के द्वारा वह इस लोक व परलोक में, अर्थात् दोनों लोकों में सुखी रहता है। जो बहुत अधिक झूठ बोलता हैं, कूट-कपट द्वारा भोले-भाले लोगों को ठगता है, वह स्वयं भी मानव-जीवन को व्यर्थ कर देता है । वणिक् पुत्रों ने एक बार मायाचार किया, तो अनेक दुःख प्राप्त किए, तो जो व्यक्ति नित्य ही माया का सेवन करता है, उसे क्या फल मिलेगा ? लोभ कारण क्रोध, मान, मायादि दोष भी प्रकट हो जाते हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ में सबसे पहले लोभ पर विजय प्राप्त करना चाहिए, क्योंकि देवता व चक्रवर्ती का वैभव भी मिल जाए, तो भी तृष्णा का अन्त नहीं होता। अगर सन्तोष जीवन में आ जाए, तो लोभ का नाश हो जाता है। कपिल ब्राह्मण, जो दो माशा सोने के लिए गया था, उसका लोभ बढ़ता ही गया, तृष्णा का अन्त नहीं आया, किन्तु एकदम त्याग का भाव मन में आते ही कपिल केवली बन गए । श्रमण - जीवन का पालन करते हुए भी यदि क्रोध पर नियंत्रण नहीं है, तो व्यक्ति का श्रमण - जीवन गन्ने के पुष्प के समान निष्फल चला जाता है। कोई व्यक्ति करोड़ वर्ष तक चरित्र का पालन करे, किन्तु यदि उसके मन में जरा-सी भी क्रोध की चिंगारी उठ जाए, तो वह उसके समग्र चरित्र को नष्ट कर देती है। शत्रु, अग्नि, मित्र और काला साँप भी जितना अपकार नहीं करते, उससे ज्यादा अपकार तो क्रोध आदि चार कषायरूपी शत्रु करते हैं। इस चतुर्गति संसार में जितना भी दुःख है, वह सब कषाय के फलस्वरूप ही है, अतः साधक को कषायों पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। साध्वी डॉ. प्रतिमा 8. परीषह - अनुशिष्टि-प्रतिद्वार - ( गाथा 671-673) इस द्वार में परीषहों का वर्णन है। आए हुए कष्टों को समभावपूर्वक सहन करना ही परीषह है। मुनि - जीवन में यदि सबसे महत्वपूर्ण कोई नियम है, तो वह है - परीषहों को समभावपूर्वक सहन करना। गृहस्थ-जीवन में भी अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है, किन्तु उसमें व्यक्ति का समभाव नहीं रहता है, जबकि श्रमण - जीवन में कष्टों का समभावपूर्वक सहन करना होता है । जैन-धर्म में एक या दो नहीं, बल्कि कुल बाईस परीषह कहे गए हैं। इन परीषहों को सहन करने से मुनि के कर्मों की निर्जरा होती है, इसलिए कष्ट - सहिष्णुता मुनि-जीवन के लिए अनिवार्य ही नहीं, उनकी जीवनचर्या का एक आवश्यक अंग भी है। जो कष्ट - सहिष्णु नहीं रहता, वह अपने नैतिक- पथ से विचलित हो जाता है, अतः निर्यापकाचार्य क्षपक साधक को इन बाईस परीषहों का स्वरूप समझाते हुए कहते हैं- तुम इन बाईस परीषहों को समभावपूर्वक सहन करके अपने कर्मों की निर्जरा करो | आराधना - पताका में प्रत्येक परीषह का स्वतन्त्र रूप से तो कोई उल्लेख नहीं है, मात्र क्षपक को परीषहों को सहन करने के निर्देश हैं, किन्तु उत्तरध्ययन - सूत्र के दूसरे अध्ययन में परीषहों का उल्लेख उपलब्ध होता है, जो इस प्रकार है - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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