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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 5. मदनिग्रह - अनुशिष्टि - प्रतिद्वार - ( गाथा 634–639) इस द्वार में निर्यापकाचार्य क्षपक को समझाते हुए कहते हैं- मद (अहंकार) के दुष्परिणामों को जानकर हे क्षपक ! तुम आठ मदों का भी परित्याग कर दो। हे मुनिश्रेष्ठ ! मद-दोषों को जानकर जाति-मद, कुल-मद, बल-मद, रूप-मद, तप-मद, ऐश्वर्य-मद, श्रुत-मद व लाभ - मद का भी परित्याग करो। किसी एक मद से मदोन्मत्त प्रतिष्ठित व्यक्ति भी विद्वानों के लिए शोचनीय व अज्ञों के लिए हास्यप्रद लघुता को प्राप्त होता है। यदि महान् अर्थ युक्त ज्ञान आदि का मद भी वर्जनीय है, तो अन्य मद - स्थानों का तो विवेक से परित्याग कर देना चाहिए। एक मद के सेवन से भी व्यक्ति को निम्नता प्राप्त होती है, तो जो सभी मद का सेवन करता है, वह तो सर्वगुण से हीन होता है। जाति-मद हरिकेशी ने किया, कुल का मद मरीचि ने किया, बल का मद विश्वभूति ने किया, रूप का मद सनत्कुमार चक्रवर्ती ने किया, तप का गर्व क्रूरवट क्षपक ने किया, ऋद्धि का मद दशार्णभद्र राजा ने किया, श्रुत का अभिमान स्थूलिभद्र मुनि ने किया लाभ का मद भृगुकच्छऽऽर्या ने किया- इन दृष्टान्तों से शिक्षा लेकर अष्टमद - स्थानों का त्याग करना चाहिए । 6. इन्द्रियविजय- अनुशिष्टि - प्रतिद्वार - ( गाथा 640 – 649) इस द्वार में निर्यापकाचार्य क्षपक को समझाते हुए इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के लिए कहते हैं । श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय- इन पाँचों इन्द्रियों को जीतना दुष्कर है। जो क्षपक इन पर विजय पा लेता है, उसकी आराधना सम्यक् हो जाती है । जो इन्द्रिय-विजेता नहीं है, अर्थात् जो इन्द्रियों का दास है, उसके द्वारा की गई साधना उसी प्रकार निस्सार हो जाती है, जैसे यदि काष्ठ में घुन लग जाए, तो वह सम्पूर्ण काष्ठ को ही समाप्त कर देता है, अतः क्षपक को इन्द्रियों पर विजय पाना चाहिए। जो सुभट अकेला ही अनेक सुभटों पर विजय प्राप्त करने की शक्ति रखता है, वह एक इन्द्रिय के विषय में ही आसक्त होने पर भी अपनी शक्ति खो देता है, अतः इन्द्रियों के विषयों की तरफ दौड़ने वाले इन्द्रियरूपी घोड़े को ज्ञानरूपी रस्सी से लगाम लगाना चाहिए। अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं करने के कारण लंका का राजा रावण, जो शूरवीर था, जगत्-प्रसिद्ध व चतुर था, वह भी अकाल-मृत्यु को प्राप्त हुआ । इन्द्र, नागेन्द्र, चक्रवर्ती और हिरण्यगर्भ (सूर्य) को भी इन्द्रियों के विषयों के प्रति आसक्ति के कारण दासत्व भोगना पड़ा था । इन्द्रिय-विजेता ही शूरवीर कहा जाता है, वही पण्डित तथा प्रशंसनीय भी होता है। श्रोत्रेन्द्रिय को वश में न करने के कारण सुभद्र, चक्षुरिन्द्रिय को वश में न करने के कारण वणिक्-सुत, घ्राणेन्द्रिय को वश में नहीं करने के कारण कुमारादि, रसनेन्द्रिय को काबू में नहीं रखने के कारण सुदास आदि स्पर्शनेन्द्रिय को वश में न करने के कारण सुकुमाल नरेश आदि मृत्यु को प्राप्त हुए। इस प्रकार, एक-एक इन्द्रियों में आसक्त व्यक्ति की दशा भी जब दयनीय हो जाती है, तो जो व्यक्ति पांचों इन्द्रियों में आसक्त है, उसका तो अधःपतन निश्चित है। व्यक्ति की कीर्त्ति या प्रतिष्ठा तब तक ही होती है, जब तक इन्द्रियाँ उसके वश में होती हैं, इन्द्रियों के वशीभूत बने व्यक्ति नरक, तिर्यंच आदि गतियों में दुःख को प्राप्त होते हैं। 25 7. कषायविजय- अनुशिष्टि-प्रतिद्वार - ( गाथा 650-670) कषायों का त्याग अत्यन्त दुष्कर होने से निर्यापक आचार्य क्षपक से कहते हैं- हे सत्पुरुष ! क्रोधादि कषायों के विपाक को जानकर कषायरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना चाहिए, क्योंकि इन्द्रिय-विजेता होने पर भी यदि मन में कषाय हैं, तो इष्ट-फल की सिद्धि नहीं होती है । कषाय चार प्रकार के हैं- (1) क्रोध (2) मान (3) माया एवं ( 4 ) लोभ । इनमें से प्रत्येक के अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानावरण एवं संज्ज्वलन- ऐसे चार-चार भेद होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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