SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साध्वी डॉ. प्रतिमा परलोक में भी नरक में अपना स्थान बनाता है, इस प्रकार संसार में अनन्तकाल तक परिभ्रमण अतः क्षपक को परधन-ग्रहण से या चोरी से उत्पन्न होने वाले दोषों को जानकर उनका त्याग करने के लिये तत्पर रहना चाहिए। चौथे, मैथुनविरमण-व्रत के धारक क्षपक को निर्यापकाचार्य कहते हैं कि ब्रह्मचर्य-महाव्रत सब व्रतों में दुर्जेय, दुस्सह एवं श्रेष्ठ है, उसका सम्यक् प्रकार से पालन करना चाहिए। हे क्षपक ! स्त्री के प्रति आसक्ति से रहित होकर एवं नौ प्रकार की ब्रह्मचर्य की गुप्ति से सुविशद्ध रहते हुए तू ब्रह्मचर्य की रक्षा करना। यह जीव ही ब्रह्म है, अतः परदेह-भोग की चिन्ता से रहित होकर जो साधु स्व में ही प्रवृत्ति करता है, उसे ब्रह्मचारी कहा जाता है। आगे, ब्रह्मचर्य की नौ वाड़ का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि वसति-शुद्धि, सराग-कथा का त्याग, आसन का त्याग, स्त्री के अंगोपांगादि को रागपूर्वक देखने का त्याग, दीवार या परदे के पास खड़े होकर स्त्री के विकारी शब्दादि सुनने का त्याग, पूर्वक्रीड़ा की स्मृति का त्याग, प्रणीत भोजन का त्याग, अति मात्रा में आहार का त्याग और विभूषा का त्याग- इस तरह ये नौ गुप्तियाँ हैं, मुनि को ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए इनका पालन करना चाहिए। इस लोक, परलोक व उभय लोकों में जो भी असहनीय दुःख हैं, विषयासक्त व्यक्ति उन सभी दःखों को सहन करता है। विषय-भोगों में आसक्त व्यक्ति इस लोक में दुःख, अपयश एवं अनर्थ को प्राप्त करता है तथा परलोक में भी दुर्गति को प्राप्त करता है। विषय-भोगों के सेवन से व्यक्ति अनन्त संसार को बढ़ा लेता है। मदन-रेखा के रूप में अनासक्त मणिरथ राजा को मरकर नरक के दुःखों को सहन करना पड़ा। शीलवन्त व्यक्ति के लिए संसार-सागर को पार करना अत्यन्त सरल होता है। शील के प्रभाव से अग्नि भी जल के समान शीतल हो जाती है, विष अमृत बन जाता है तथा देवता भी सेवक बनकर चरणों में झक जाते हैं। जिसने अति उत्तम शील-ध ली है, उसे चिन्तामणि-रत्न की भी कोई आवश्यकता नहीं होती है। उसके घर में लगा हुआ वृक्ष भी कल्पवृक्ष के समान हो जाता है, अर्थात् शील-साधना में रत व्यक्ति को ऋद्धि-सिद्धि तो स्वतः ही प्राप्त हो जाती है। पांचवें, परिग्रहविरति-महाव्रत में निर्यापकाचार्य क्षपक को अपरिग्रह का महत्व बताते हुए परिग्रहों के प्रति अनासक्ति रखने का निर्देश देते हैं। बाह्य-परिग्रह के दस भेद और आभ्यन्तर-परिग्रह के चौदह भेद हैं। परिग्रह के प्रति आसक्ति के कारण व्यक्ति कलह आदि दुष्कर्म करता है। जब परिग्रह-संज्ञा का उदय होता है, तब उस लालची जीव को. संग्रह करने की बुद्धि होती है। उस संचय-वृत्ति के कारण वह जीवों की हत्या करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, मैथुन का सेवन करता है और अपरिमित धन एकत्रित करता है। धन-संचय के मोह में पड़कर जीव अहंकार, चुगली, कलह, कठोरता आदि अनेक दोषों का सेवन करता है। जैसे ईंधन से अग्नि और नदियों से समुद्र तृप्त नहीं होता, वैसे ही जीव को यदि तीनों लोकों की सम्पत्ति भी मिल जाए, फिर भी उसकी तृप्ति नहीं होती है। यदि क्षपक निर्ग्रन्थ है, तो वह किसी भी तरह का परिग्रह न रखे, क्योंकि परिग्रह रखने वाला निर्ग्रन्थ नहीं हो सकता है। परिग्रह-बुद्धि से चित्त मलिन होता है तथा परिग्रह जन्म-मरण के चक्र को बढ़ाने वाला होता है, अतः संयमी व्यक्ति परिग्रह को वैर एवं कलह का कारण जानकर त्याग देता हैं, वह तो शरीर की ममता का भी त्याग कर देता है, इसलिए हे क्षपक ! तुम परिग्रह-परित्याग करो। अहिंसा आदि महाव्रतों की रक्षा के लिए रात्रि-भोजन का त्याग अनिवार्य है, अतः क्षपक को रात्रि-भोजन का भी त्याग कर देना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy