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5. अनेक व्यक्तियों से कामभोग- सेवन की कामना । 6. स्वयं के साथ भोग- सेवन की कामना ।
7. अन्य के साथ भोग नहीं करने की कामना ।
8. श्रावक बनने की कामना या दरिद्र होने की कामना ।
इस प्रकार, इस द्वार में यह बताया गया है कि समाधिमरण के साधक को इस प्रकार की कोई भी कामना नहीं करना चाहिए। इसमें अगली गाथाओं में बहुरति और स्वरति को स्पष्ट करते हुए यह बताया गया है कि बहुरति का अर्थ है अनेक व्यक्तियों के साथ कामभोग - सेवन करने की इच्छा। इसी प्रकार, स्वरत का अर्थ है- अपने ही शरीर से अन्य देवी या देव की रचना कर उसके साथ कामभोग का सेवन करना । यहाँ श्रावकत्व के निदान का वर्जन इसलिए किया गया है कि जैनदर्शन निवृत्ति-मार्गीय होने से मुनि - जीवन को ही श्रेष्ठ मानता है, अतः वह कहता है कि जिस प्रकार दरिद्रता की कामना करना उचित नहीं है, उसी प्रकार श्रावकत्व की कामना करना भी उचित नहीं है, क्योंकि वह संसार से निवृत्ति का हेतु नहीं है। अगली गाथाओं में निदान या कामना को इसलिए अनुचित बताया गया है कि वह संसार - परिभ्रमण का हेतु है, जबकि साधना का मुख्य लक्ष्य तो संसार से मुक्ति प्राप्त करना है। कामना करना तो चिन्तामणि का त्याग करके कांचमणि को ग्रहण करने जैसा है, इसलिए साधक को समाधिमरण की अवस्था में न तो जीवन की कामना करना चाहिए, न मरण की, अपितु जीवन-मरण के चक्र से ऊपर उठकर निर्वाण - मार्ग की कामना करनी चाहिए ।
साध्वी डॉ. प्र
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14. कुभावना - त्याग - अनुशिष्टि - प्रतिद्वार - ( गाथा 713 - 722)
इस द्वार में निर्यापकाचार्य क्षपक-साधक को दुर्भावना और सद्भावना का विवेचन करते हुए कहते हैं कि सद्भाव के अभाव में उच्च से उच्चतर श्रेणी में चढ़ भी जाए, परन्तु यदि भावों में स्थिरता न रहे, तो पुनः जीव का पतन हो जाता है, अतः भावों में दृढ़ता लाने के लिए भावनाओं का पुनः चिन्तन आवश्यक है। हे क्षपक ! संक्लिष्ट भावनांए होती हैं, जो आराधक द्वारा नित्य त्याज्य हैं। वे संक्लिष्ट भावनाएं इस प्रकार हैं
(1) कांदर्पी, (2) किल्विषी, (3) आभियोगी ( 4 ) आसुरी एवं ( 5 ) सम्मोही । इन पांच संक्लिष्ट भावनाओं के प्रत्येक के पांच-पांच विकल्प होते हैं
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(1) कांदर्पी भावना इस भावना के पांच भेद हैं- (क) अप्रशस्त - भावना - कामुक हास्यादि करना। (ख) कौत्कुच्य - भावना - नैत्र, भृकुटी एवं शरीर के अन्य अंगोपांगों की गतिविधि द्वारा स्वयं हंसे बिना दूसरों को हंसाना । (ग) द्रुतशीलत्व-भावना- अहंकार वश सर्वकार्य शीघ्र करना । (घ) हास्यकरण-भावना- विचित्र वेषभूषा एवं विकारी - वचनों द्वारा स्व-पर को हंसना । (ड.) परविस्मयकर - भावना - मन्त्र-तन्त्र आदि से जगत् को आश्चर्यचकित करना ।
(2) किल्विषी - भावना - देव - आयुष्य का बंध कराने वाली किल्विषिक - भावना को भी पांच भागों में बांटा गया है। (क) श्रुतज्ञान की अवज्ञा करना (ख) केवली - भगवन्त की अवज्ञा करना (ग) धर्माचार्य की अवज्ञा करना (घ) साधुओं की अवज्ञा करना (ड.) गाढ़ माया करना - ये सब किल्विषिक - भावना के ही रूप हैं।
(3) आभियोगिक - भावना - विषयासक्ति के कारण वशीकरण - मन्त्र आदि से स्वयं को भावित करना आभियोगिक भावना है। यह भावना भी पांच प्रकार की है- (क) कौतुक - भावना (ख) भूतिकर्म-भावना (ग) प्रश्न - भावना (घ) प्रश्नाप्रश्न - भावना और (ड.) निमित्त-भावना
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