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________________ 22 भव - भ्रमण के मूल हेतु इस मिथ्यात्व का जीवनपर्यन्त के लिए तीन करण एवं तीन योग से त्याग करो । साध्वी डॉ. प्रतिभा अग्नि, विष, कृष्ण सर्प आदि भी जीवन का उतना अहित नहीं करते हैं, जितना अहित तीव्र मिथ्यात्व के परिणाम करते हैं। अग्नि, विष आदि तो हमें एक ही जन्म में दुःख देते हैं, किन्तु मिथ्यात्व - मोह से मूढ़ तुम कहां-कहां नहीं भटके, छेदन-भेदन आदि किन-किन दुःखों को तुमने सहन नहीं किया, अतः यदि तुम संसार-सागर से तिर कर सिद्धपुर जाने की इच्छा करते हो, तो सभी प्रकार के मिथ्यात्व का मन-वचन-काया से त्याग करो । 2. सम्यक्त्वाचरण - अनुशिष्टि-प्रतिद्वार - ( गाथा 578–582) इसमें निर्यापकाचार्य क्षपक को सम्यक्त्व के स्वरूप का बोध करवाते हुए कहते हैं- जैसे पृथ्वी धान्य की उत्पत्ति का आधार है, आकाश तारागणों का आधार है, वैसे ही सम्यक्त्व सभी गुणों का आधार है। जो क्षपक सम्यक्त्व से च्युत नहीं होता है, वह पूर्वबद्ध नरकादि आयु वाला न हो, तो नियम से देह त्याग के पश्चात् ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव विमानवासी देवगति में ही उत्पन्न होता है। जिसने अन्तर्मुहर्त के लिए भी सम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया है, वह जीव संसार में अर्द्धपुद्गल - परावर्तनकाल से अधिक परिभ्रमण नहीं करता है। 3. स्वाध्याय - अनुशिष्टि-प्रतिद्वार - (गाथा 583-593) परम-पद की प्राप्ति के लिए क्षपक को प्रयत्वपूर्वक वाचनादि पाँच प्रकार का स्वाध्याय करना चाहिए। ज्ञान बंधु के समान है। ज्ञान ही मोह के अन्धकार को दूर करने में सूर्य के समान है । ज्ञान संसार - समुद्र को पार करने के लिए सुन्दर नौका के समान है । ज्ञान से ही संसार के सूक्ष्म एवं स्थूल सभी पदार्थों का ज्ञान होता है, इसलिए ज्ञान को सीखने का प्रयत्न करना चाहिए। संसार में ऐसा कोई भी पदार्थ या परमार्थ नहीं है, जिसे स्वाध्यायशील व्यक्ति नहीं जान पाता हो । ज्ञान से ही व्यक्ति परम संवेग को भी प्राप्त करता है। स्वाध्याय में प्रवृत्त व्यक्ति पल भर में ही असंख्य भवों के कर्मों का क्षय कर लेता है । वीतराग द्वारा भाषित बारह प्रकार के बाह्य व आभ्यन्तर - तपों में से स्वाध्याय के समान तप कर्म न तो है और न होगा, अतः सदैव स्वाध्याय में निरत रहना चाहिए। उत्कर्षतः स्वाध्याय चौदह पूर्वी एवं बारह अंगों का होता है और सबसे अल्प स्वाध्याय मात्र नमस्कार - मन्त्र का होता है । स्वाध्याय करने से भिक्षु जितेन्द्रिय एवं तीन गुप्तियों से युक्त होता है तथा विनय से संयुक्त होता है। जैसे-जैसे वह शास्त्रों का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे आनन्द - रस से परिपूरित होता जाता है और उसका मन आह्लाद से भर उठता है । स्वाध्याय से साधक का चित्त एकाग्र होता है तथा चित्त के चंचलतारहित होने से वह समाधिमरण का आराधक होता है। 4. पंच - महाव्रत - अनुशिष्टि-प्रतिद्वार - ( गाथा 594–633 ) इसमें निर्यापकाचार्य क्षपक को समझाते हुए कहते हैं- यदि तुमने एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों को मन, वचन, काया से कष्ट दिया हो, तो उसका परित्याग करो । मिथ्यादृष्टि भी जीवों की हिंसा करते हैं, किन्तु उनके द्वारा भी जीवों की रक्षा की जाती है। साधुओं को तो जीवों की रक्षा करना ही चाहिए। एकमात्र जीवदया ही करोड़ों लोगों का कल्याण करने वाली माता तुल्य है । यह शत्रुत्व की भावना को नष्ट करने वाली तथा संसार-समुद्र को पार कराने वाली नौका के समान है। यह मैत्रीरूपी विपुल राज्य को देने वाली, विद्वष से मुक्त करने वाली और मोक्षरूपी शाश्वत् सुख को देने वाली है। पुनः, जो असंयमी निरंकुश साधक छः काय के जीवों का वध करते हैं, वे दुःखद भव-भ्रमण करते रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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