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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 21 समान है, पद्म-सरोवर के समान है। क्षपक भी मन में यह विचार करता है कि जीवन में ऐसे अपूर्व अवसर को प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है। ऐसा चिन्तन करके सभी सांसारिक परिजनों के प्रति एवं अपने शरीर के प्रति भी ममत्व का त्याग करके समाधि में स्थिर रहने का प्रयत्न करता है। इस अवसर पर क्षपक इस प्रकार विचार करता है- मेरा यह शरीर मुझे सदैव प्रियकान्त मनोज्ञ रहा है। मैंने इसे चिन्तामणि रत्न या स्वर्णाभूषण के समान यत्नपूर्वक संभालकर रखा है। कीमती वस्त्रों के समान इसकी सार-संभा की है, सुरक्षा की है, यह मेरा शरीर कामधेनु, चिन्तामणि, भद्रघट के समान है। मैंने इसे सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, मच्छर, दुष्ट चोरों आदि से, वात-पित्त-कफ आदि जनित रोगों से मुक्त रखने का प्रयत्न किया है, यत्नपूर्वक इस शरीर की रक्षा की है। अब मैं इस शरीर के प्रति अनासक्त होकर चरम उच्छवास के साथ ही इसका त्याग करता हूँ। इस प्रकार चतुर्विध-आहार तथा निज देह के प्रति ममत्व का भी त्याग करके क्षपक-मुनि संथारे (मृत्यु-शय्या) पर आरूढ़ होकर पूर्वबद्ध कर्मों को क्षय करता है। सागार-अनशन में भी कायोत्सर्ग को छोड़कर आलोचना आदि से लेकर शक्रस्तव तक सर्व विधि इसी प्रकार की जाती है। इस प्रकार, क्षपक अठारह पापस्थानों का त्याग करके सभी प्रकार से चतुर्विध-आहार का भी त्याग करता है। चाहे क्षपक यावत्-जीवन चारों आहार का प्रत्याख्यान करता है, तो भी यदि कोई विशेष परिस्थिति उत्पन्न हो जाए, वह मूर्च्छित हो जाए, या कोई उपसर्ग आ जाए, तो चतुर्विध-आहार ले सकता है। इसी प्रकार, यदि शरीर में समाधि नहीं रहे, चतुर्विध-आहार का त्याग करते ही शरीर में असमाधि हो जाए, विकट रोग उत्पन्न हो जाए, तो आपवादिक-स्थिति में उसे आहार-औषध आदि दिए जा सकते हैं, अतः समझदार व्यक्तियों का सागार-प्रत्याख्यान लेना उचित है। अठारह पापस्थानों और चारों आहारों का त्याग करने के पश्चात् क्षपक यह निवेदन करता है- मैं भगवान महावीर स्वामी को एवं शेष सभी जिनों को गणधरों सहित प्रण सभी प्रकार से जीवहिंसा का, असत्य वचन का व अदत्तादान, मैथुन तथा परिग्रह का त्याग करता हूँ। तत्पश्चात्, क्षपक इस प्रकार क्षमा याचना करता है- मेरे लिए सभी जीव समान हैं, मेरा किसी के प्रति वैर-विरोध नहीं है। मैं अब आशा-तृष्णा का भी परित्याग करता हूँ तथा समाधि-भाव को धारण करता हूँ। प्रस्तुत कृति के उनतीसवें अनुशिष्टि-द्वार (गाथा 568-758) में यह बताया गया है कि निर्यापकाचार्य संस्तारगत (क्षपक) को कान में यह शिक्षा दे कि अनुशिष्टि अर्थात् अनुशासन के ये सत्रह प्रतिद्वार हैं, तुम्हें इनका विधिवत पालन करना चाहिए। (1) मिथ्यात्व-परित्याग (2) सम्यक्त्व-परिपालन (3) स्वाध्याय (4) पंच महाव्रतों की रक्षा (5) मदनिग्रह करना (6) इन्द्रिय-जय (7) कषाय-विजय (8) परीषह-सहन (७) उपसर्ग-सहन (10) अप्रमत्त रहना (11) आभ्यन्तर व बाह्य-तपों से रति (12) रागादि प्रतिषेध (13) नौप्रकार की आकांक्षाओं का वर्जन (14) कंदर्पादि पच्चीस कुभावनाओं का त्याग (15) संलेखना के अतिचारों का वजेन (16) बारह शुभ भावनाओं का चिन्तन (17) पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं का परिपालन। ये अनुशिष्टि (अनुशासन) के प्रतिद्वार हैं। प्रस्तुत कृति में आगे इन्हीं अनुशिष्टियों को विस्तार से समझाया गया है । 1. मिथ्यात्वत्याग–अनुशिष्टि-प्रतिद्वार -(गाथा 573-577) इसमें निर्यापकाचार्य उस समाधिस्थ साधक या क्षपक को समझाते हुए कहते हैं- हे सत्पुरुष ! सम्यक्त्व-आराधना के लिए तुम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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