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________________ साध्वी डॉ. प्रतिभा 3. अदत्तादान का सेवन करने से ललितगोष्ठि किस प्रकार विनाश को प्राप्त हुआ और अदत्तादान-व्रत का ग्रहण करने से नागदत्त का किस प्रकार से कल्याण हुआ, तत्सम्बन्धी कथानक हैं। 4. मैथुनविरमण-व्रत, अर्थात् शीलव्रत का पालन करने वाले सुदर्शन का कल्याण किस प्रकार हुआ, काम-वासना से ग्रस्त मणिरथ का पतन किस प्रकार हुआ, इस सम्बन्धी आख्यान हैं। 5. परिग्रह के सन्दर्भ में परिग्रह का त्याग करने वाले जम्बूस्वामी का कल्याण किस प्रकार हुआ एवं ममत्व मूर्छा रखने वाले मुम्मन सेठ का पतन किस प्रकार हुआ, इनके आख्यान हैं। 6. क्रोध के सम्बन्ध में भगवान् महावीर और सिद्ध का आख्यान सुप्रसिद्ध है। 7. मान के सम्बन्ध में चन्दना व सुभूम चक्रवर्ती का कथानक प्रसिद्ध है। 8. माया के सम्बन्ध में आषाढ़भूति व अंगद का कथानक है। 9. लोभ के सम्बन्ध में लोभनन्दी एवं वज्र का आख्यान है। 10. राग के सम्बन्ध में सार्थवाही व आर्यरक्षित की कथा है। 11. द्वेष के सम्बन्ध में दमदन्त व स्कन्द का कथानक है। 12. कलह के सम्बन्ध में कूणिक व निधिवनी का आख्यान है। 13. अभ्याख्यान के सम्बन्ध में धनश्री व मेतार्य का कथानक है। 14. संयम के सम्बन्ध में रति-अरति के लिए शिवकुमार एवं ब्रह्मदत्त का दृष्टांत सुप्रसिद्ध है। 15. पैशून्य के लिए सुबन्धु व मुनिपति का आख्यान है। 16. परपरिवाद के लिए सुभद्र के श्वसुर एवं शमित मुनि की कथा है। 17. माया-मृषावाद के सम्बन्ध में क्षपक, त्रिकूट, ग्रामेश्वर व विदेहवनी का आख्यान है। 18. मिथ्यादर्शन-शल्य में त्रिविक्रम एवं सुलसा का दृष्टांत है। प्रस्तुत कृति के अट्ठाईसवें अनशन-द्वार (गाथा 540-567) में आगे यह बताया गया है कि अठारह पापस्थानों का त्याग करके क्षपक अनशन स्वीकार करने हेतु गुरुदेव से निवेदन करता है और कहता है- सभी द्वारों का सारभूत अनशन-द्वार है, अतः अब मैं अनशन ग्रहण करना चाहता हूँ। फिर, वह अनशन करने वाला क्षपक सिंह के समान शूरवीर होकर निर्यापकाचार्य के पास अनशन ग्रहण करने हेतु क्रिया करता है। क्रिया के उपरान्त निर्यापकाचार्य उस क्षपक को संघ के समक्ष और संघ की अनुमति से जीवन-पर्यन्त तीनों या चारों प्रकार के आहार के त्याग की प्रतिज्ञा करवाता है। क्षपक स्वयं भी कहता है- मैं इस जीवन के अन्तिम समय तक चारों प्रकार के आहार चार अपवादों के अतिरिक्त त्याग करता हूँ। वह प्रत्याख्यान-प्रतिज्ञासूत्र इस प्रकार हैं . मैं जीवन के अन्तिम समय तक चतुर्विध-आहार अशन, पान, खादिम, स्वादिम का त्याग निम्न आपवादिक स्थितियों, यथा- अज्ञानदशा में, अथवा आकस्मिक रूप से मुख में रख लेने पर, अथवा वरिष्ठजनों के आदेश से, अथवा बहुत अधिक असमाधि या पीड़ा की स्थिति को छोड़कर, त्याग करता हूँ। त्रिविध आहार के त्याग का नियम भी इसी प्रकार किया जाता है, अन्तर यह है कि उसमें पेयजलादि का त्याग नहीं होता है। इसमें आगे कहा गया है कि ऐसी विशेष परिस्थिति में वरिष्ठजनों की आज्ञा से क्षपक साधक को शुद्ध जल या पेय पदार्थ देना कल्पता है। ऐसी परिस्थिति में क्षपक की समाधि के लिए तेल-मालिश आदि भी करना पड़े, तो उसमें कोई दोष नहीं है। क्षपक श्रावक के लिए इतना अन्तर है कि जब तक वह पापस्थानों के त्याग के लिए तत्पर न हो, तब तक उसे त्रिविध या चतुर्विध-आहार का त्याग नहीं कराना चाहिए। उसकी भी शेष समग्र विधि साधु के समान ही होती है। सागार या निरागार आमरण अनशन साधक जीवन के लिए उत्तम कोश के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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