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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। प्रस्तुत कृति के सत्रहवें चतुःशरण द्वार (गाथा 234-271) में यह बताया गया है कि क्षपक या श्रावक व्रतोच्चारण से चारित्र में प्रवृत्त होता हुआ चतुर्गतिरूप भव-भ्रमण से भयभीत होकर चारों शरणों को ग्रहण करता है। वह क्षपक चतुर्गति के दुःख का निवारण करने वाले अरिहन्त सिद्ध. साध एवं जिनभाषित-धर्म- ऐसे शरण को प्राप्त करता है। वह संविग्न क्षपक दोनों हाथों से अंजलीबद्ध होकर भव-भ्रमण को मिटाने वाले अरिहन्त की शरण को ग्रहण करता है। जिन अरिहन्त भगवान् को गर्भ से ही तीन ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि) थे, जिनका च्यवन-कल्याणक देवाधिपति इन्द्र द्वारा मनाया गया, जिन अरिहन्त भगवान् का देवेन्द्रों द्वारा जन्माभिषेक किया गया- ऐसे जिनेश्वर देवों की शरण को मैं ग्रहण करता हूँ। जो अरिहन्त भगवान् लोकान्तिक देवों द्वारा प्रतिबोधित होकर वर्षीदान देकर चारित्र ग्रहण करके मन पर्यवज्ञान के धारक हो जाते हैं, जो चार घातीकों को क्षय करने वाले, चौंतीस अतिशय, पैंतीस वाणी से सहित, एक हजार आठ लक्षणों को धारण करने वाले, अठारह दोषरहित हैं, उन अरिहन्त परमात्मा की मैं शरण ग्रहण क अरिहन्त की इस प्रकार शरण ग्रहण कर अपने पापों का प्रक्षालन करता हूँ, अब मैं सिद्धों की शरण में जाता हूँ । अब वह क्षपक सिद्ध भगवान् की स्तुति करते हुए कहता है- अष्टकर्मरूपी काष्ठ-संचय को शुक्लध्यानरूपी अग्नि से जलाकर शिव-पद को प्राप्त करने वाले सिद्ध भगवान की शरण को मैं ग्रहण करता हूँ। उग्र तप एवं ध्यान के द्वारा चार गति-बंध से विप्रमुक्त संसार का भजन करने वाले पंचम गति अर्थात् मोक्ष को प्राप्त- ऐसे सिद्ध भगवान् की शरण में जाता हूँ। जो अनन्त ज्ञान, दर्शन, वीर्यसुख, अनन्त-चतुष्टय को प्राप्त हैं, जो ससार के सुख-दुःख से निर्लिप्त, लोक के अग्रभाग में स्थित, जो अरिहन्तों द्वारा महिमा-मण्डित हैं, तीर्थ-अतीर्थ आदि पन्द्रह भेदों से सिद्ध हुए हैं- ऐसे सिद्ध भगवान की शरण को मैं ग्रहण करता हूँ । जहाँ न जरा है, न मृत्यु है, न व्याधियाँ हैं, न तिरस्कार है, न भय है, न तृष्णा है, न क्षुधा है, न परतंत्रता है, न दुर्भाग्य है, न है, न शोक है, न प्रिय-वियोग है, न अनिष्ट-संयोग है, न शीत है, न उष्णता है, न संताप है, न दारिद्रय है, उस शिवगति को प्राप्त सभी भूत-भविष्य-वर्तमानकाल के ज्ञाता, अन्याबाध सुख के भोक्ता, देह से भिन्न- ऐसे सिद्धों की शरण को मैं ग्रहण करता हूँ। सिद्धशरणरूपी जलधारा से पापकर्मरूपी दावानल को शान्त करके, अपने सिर को झुकाकर अब मैं साधु की शरण में जाता हूँ। साधु, जो दुर्जेय पंच महाव्रतों के पालन करने वाले पंच समिति, त्रिगुप्ति के धारक, जो नवविध ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, सत्रह प्रकार के संयम को स्वीकारने वाले, जो विकृतियों एवं कषायों से विमुक्त हैं, जो दसविध यतिधर्म का पालन करने में सक्षम हैं, जो छःकाय जीवों की रक्षा करने वाले हैं, जो शान्तचित्त हैं, देहादि की ममता से रहित हैं- ऐसे सिद्ध मेरे शरण-भूत हों। जो नवकल्पविहार करने वाले, जो एक हजार आठ लक्षणों को धारण करने वाले, गृहस्थ-जीवन के त्यागी, निर्दोष आहार ग्रहण करने वाले, अठारह दोषों से रहित, पाँच इन्द्रियों पर विजय पाने वाले, जो सत्ताईस गुणों के धारक हैं- ऐसे सिद्ध भगवान् की शरण को मैं ग्रहण करता हूँ। इस साधुशरणरूपी चन्दन-रस से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ अब मैं धर्म की शरण को ग्रहण करता हूँ| धर्म वही है, जो पापकर्म के वशीभूत होकर पाप के दलदल में फंसे हुए प्राणियों का उद्धार करता है। अज्ञान-रूपी अन्धकार को दूर भगाकर सूर्य के समान प्रकाश देने वाले विषय-कषायों की अग्नि को शान्त करने वाले धर्म की शरण को मैं ग्रहण करता हूँ। तीर्थंकर गणधर आदि अनेक लब्धियों से सुसज्जित अष्टकर्म व्याधि की चिकित्सा के लिये वैद्य के समान श्रेष्ठ लब्धियों से सुसज्जित, पापकर्मों का विनाश करने वाला, देव-गुरु तत्त्व को प्रकट करने वाला, टीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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