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________________ साध्वी डॉ. प्रतिभा ___ में मूढ़मति हूँ, मैं छद्मस्थ हूँ, मेरे जो पाप मेरी स्मृति में न हों, उनकी भी मैं सम्यक आलोचना करता हूँ। अरिहन्त, सिद्ध, साधु व स्व-आत्मा की साक्षी से एवं वर्तमान में विहरमान सीमंधर स्वामी आदि की साक्षी से जो-जो मुझे स्मरण है तथा जो-जो मुझे स्मरण नहीं भी है, उन सबका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। इस प्रकार, अपने पूर्वकृत पापों की आलोचना करता हुआ, विशुद्ध परिणामों से युक्त आराधक, मान व माया से विप्रमुक्त होकर भार उतारकर रख देने वाले भारवाहक के समान अत्यन्त हल्का हो जाता है । जो क्षपक लज्जा, अभिमान और ज्ञान के मद से मदोन्मत होकर अपने दुष्कृत्य को गुरु के सम्मुख नहीं कहता है, वह वस्तुतः आराधक नहीं कहा जा सकता है। प्रस्तुत कृति के सोलहवें व्रतोच्चारणा-द्वार (गाथा 219-233) के प्रारम्भ में यह निर्देश दिया गया है कि क्षपक महाव्रतों के उच्चारणपूर्वक छेदोपस्थापनीय-चारित्र को ग्रहण करे। छेदोपस्थापनीय-चारित्र में पुनः स्थापित होने के लिये उस क्षपक को निर्यापकाचार्य के समक्ष वन्दन करके महाव्रतों के पुनरारोपण हेतु निवेदन करना चाहिये तथा प्रत्येक महाव्रत को तीन-तीन बार उच्चरित कर ग्रहण करना चाहिए। अन्त में, रात्रिभोजन-विरमण-व्रत को भी तीन बार उच्चारण करके ग्रहण करना चाहिए। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि पाँच महाव्रतों का पुनरारोपण नमस्कारमन्त्रपूर्वक होता है, किन्तु छठवें रात्रिभोजन-विरमण-व्रत का ग्रहण नमस्कारमन्त्रपूर्वक नहीं होता। इस द्वार के अन्तर्गत यह भी बताया गया है कि क्षपक यदि निज गच्छ का होता है, या खंडित चारित्र वाला होता है, तो आचार्य उसका उपस्थापन और दिशाबंध- दोनों ही करते हैं, किन्तु यदि क्षपक अन्य गच्छ से आया है और निरतिचार चारित्रवाला है, तो उसे उपस्थापना द्वारा महाव्रतों में पुनः स्थापित करने की आवश्यकता नहीं होती है, फिर भी दिशाबंधपूर्वक रात्रिभोजन-विरमण तक व्रतारोपण तो किया ही जाता है। ज्ञातव्य है कि पार्श्वस्थ, अर्थात् शिथिल चारित्र वाले के लिये तो चाहे वह स्वगच्छ का हो या अन्य गच्छ का, सम्पूर्ण उपस्थापन-विधि की जाना चाहिए तथा दिशाबंध भी किया जाना चाहिए। इसी प्रकार, यदि कोई क्षपक व्रतधारी श्रावक हो, तो उसे संस्तारक-प्रव्रज्या में प्रव्रजित किया जाता है. अर्थात उसकी भी संस्तारक में स्थापित होने के पर्व प्रव्रज्या-वि है । यह विधि जिनालय में की जाती है। यहाँ संस्तारक-प्रव्रज्या का मतलब है कि वह संस्तारक में रहते हुए रात्रिभोजनविरमण सहित पाँचों महाव्रतों का पालन करे, किन्तु उसकी उपस्थापना नहीं होती, क्योंकि उपस्थापना केवल उन्हीं की होती है, जिन्होनें सामायिक-चारित्र ग्रहण किया हो। यदि सम्यक्त्वयुक्त श्रावक क्षपक संस्तारक-प्रव्रज्या ग्रहण न करके मात्र भक्तपरिता ग्रहण करता है, तो वह प्रथम अहिंसा-अणुव्रत का नमस्कारमन्त्रपूर्वक तीन बार उच्चारण करे, उसके पश्चात् शेष ग्यारह व्रतों का नमस्कारमन्त्र के उच्चारण के बिना तीन बार उच्चारण करे। यदि श्रावक क्षपक सम्यक्त्वधारी भी न हो, तो उसे सर्वप्रथम नमस्कारमन्त्रपर्वक सम्यक्त्व धारण करना चाहिए। सम्यक्त्व-प्रव्रज्या का उच्चारण भी तीन बार किया जाना चाहिए। उसके पश्चात्, उसे पाँच अणुव्रतों तथा सात शिक्षाव्रतों का उच्चारण भी नमस्कार-मन्त्र के उच्चारण के बिना तीन तीन बार करवाया जाना चाहिए। जिस प्रकार व्रतोच्चारण-द्वार में स्वगच्छ के खंडित चारित्र वाले और अखण्डित चारित्र वाले अन्य गच्छ से आए, निरतिचार महाव्रतों का पालन करने वाले क्षपक के लिए तथा पार्श्वस्थ आदि क्षपकों के लिए उपस्थापन-विधि और दिशाबंध-विधि का विवेचन किया गया है, उसी प्रकार उसमें सम्यक्त्व-ग्रहण रहित श्रावक, सम्यक्त्व-ग्रहण युक्त श्रावक तथा सम्यक्त्व सहित अणुव्रतों को ग्रहण किए हुए श्रावक की प्रव्रज्या-विधियों का भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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