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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 9 दर्शनाचार, चरित्राचार, तपाचार और वीर्याचार में जो कोई सूक्ष्म या बादर अतिचार लगे हों, क्षपक को उन सबकी आलोचना कर शुद्ध होना चाहिए। आलोचना-द्वार के अन्तर्गत ज्ञानाचारातिचारालोचना-द्वार के प्रारम्भ में यह बताया गया है कि इसमें क्षपक काल, विनय, बहुमान, उपधान तथा अनिह्नवता, व्यंजन, अर्थ अथवा दोनों की अपेक्ष से जो भी श्रुतज्ञान-विराधना हुई हो, उसकी आलोचना करे। वह कहे- “मेरे द्वारा सभी द्रव्यों को प्रकाशित करने वाले दीपक के समान पंचविध (श्रुत) ज्ञान, ज्ञानी तथा भवव्याधि-विदारक वैद्य के समान ज्ञानोपकारकों के प्रति तथा पुस्तक, पोथियों व पट्ट-पट्टिका, भित्ति, टिप्पणादि ज्ञानोपकरणों के प्रति निंदा, प्रदोष, हीलना, अविनय, उपहास, चरणाघातादि आशातना हुई हो, उन सबकी मैं आलोचना करता हूँ। आलोचना-द्वार के अन्तर्गत दर्शनाचारातिचारालोचना-द्वार के प्रारम्भ में यह बताया गया है कि आत्मशुद्वि का साधक क्षपक दर्शनाचार के निम्न अतिचारों की आलोचना करे, जैसे- “मैंने समकितधारी आचार्य, उपाध्याय, श्रमण-श्रमणियों, श्रावक-श्रविकाओं सहित देव-देवियों एवं जिनवर, जिनबिम्ब, मुनिवरादि के प्रति जो भी अवज्ञा व प्रतिकूल कार्य किया हो, जिन–मन्दिर की आशातना की हो, आसक्ति को नहीं तोडा हो, तो मैं उन सभी की गर्दा करता हूँ।" आलोचना-द्वार के अन्तर्गत ही चारित्राचारालोचना-द्वार में यह बताया गया है कि समाधि को चाहने वाला क्षपक यह सोचें- “मैंने पांच समिति, तीन गुप्ति का पालन नहीं किया हो, मूलगुण-उत्तरगुण में कोई दोष लगा हो, राग-द्वेष के वशीभूत होकर मेरे द्वारा पृथ्वीकायादि पाँच एकेन्द्रिय जीवों की, कृमि आदि बेइन्द्रिय जीवों की हिंसा हुई हो, जूं, लीख, खटमल, कीटादि मकड़ी आदि तेइन्द्रिय, बिच्छू, भ्रमरादि चतुरिन्द्रिय एवं जलचर, स्थलचर, खेचर आदि तिर्यंच-पंचेन्द्रिय तथा सम्मूर्छिम एवं गर्भज मनुष्यों को आघात लगाया गया हो, प्रगाढ़ परितापना दी गई हो, उपद्रव किया गया हो, यातना दी गई हो, तो उन सभी की मैं आलोचना करता हूँ। मेरे द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, एकान्त में, कूटसाक्षी से असत्य भाषण किया गया हो, मेरे द्वारा पराया व अदत्त (बिना दिया) जो भी सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त अथवा मिश्रित पदार्थ ग्रहण किया गया हो, मेरे द्वारा मैथुनविरमण-व्रत में मन, वचन, काया से अंशतः या सर्वतः न्यूनाधिक दोष लगा हो, मैंने ग्राम, कुल आदि क्षेत्र, वास्तु आदि में ममत्व रखा हो, कदाचित् रात्रिभक्तविरमण-व्रत की विराधना हुई हो एवं । पर, यानि कालोकाल प्रतिलेखन आदि नहीं किया हो, तो मैं उन सभी.की मन, वचन, काया से त्रिविध रूप से आलोचना करता हूँ। आलोचना-द्वार के अन्तर्गत तपाचारातिचारालोचना-द्वार में यह कहा गया है कि क्षपक यह सोचे- “मैंने प्रमाद के कारण बारह प्रकार के तप न किए हों, अविधिपूर्वक किए हों, तो मैं मन, वचन और काया से उनकी आलोचना करता हूँ।" आलोचना-द्वार के अन्तर्गत वीर्याचारातिचारालोचना-द्वार में यह बताया गया है कि क्षपक को अपने मन में यह चिन्तन करना चाहिए- “यदि पूर्व में जिन भगवान् द्वारा प्रतिपादित मुक्ति के मार्ग की साधना के लिए मैंने पराक्रम नहीं किया हो, तो मैं उसकी आलोचना करता हूँ। श्रावक के पाँच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों एवं चार शिक्षाव्रतों में जो-जो अतिचार लगे, उनकी मैं सम्यक् आलोचना करता हूँ। इसी प्रकार, मुनि-जीवन के पांच महाव्रतों एवं मूलगुणों एवं उत्तरगुणों में तथा रात्रिभोजनविरमण-व्रत में जो कोई दोष लगा हो, तो उनकी मैं सम्यक् आलोचना करता हूँ। उनमें अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार-रूप जो कोई भी दोष लगा हो, तो उसकी भी मैं आलोचना करता हूँ। प्रमाद के कारण, राग-द्वेष के कारण मेरे द्वारा कोई अपराध हुए हों, उन सबकी त्रिविध आलोचना करता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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