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साध्वी डॉ. प्रतिभा
बनी रह सकेगी, इसके लिए उसका पेट साफ है या नहीं- यह जानकर उदरमल-शोधन के लिए उसे समाधिपान, अर्थात् विरेचन-द्रव्य पिलाया जाना चाहिए। त्रिफला और नागकेशर को तमालपत्र के दूध और शक्कर के साथ मिलाकर, उसे थोड़ा-सा गर्म करके पिलाया जाना चाहिए, जिससे क्षपक के उदर की पीड़ा शान्त हो जाए। ज्ञातव्य है कि पुष्प-फलादि के मधुर विरेचन से वह क्षपक सुखपूर्वक समाधि को प्राप्त होता है।
प्रस्तुत कृति के तेरहवें गणनिसर्ग-द्वार (गाथा 103-144) के प्रारम्भ में यह बताया गया है कि समाधिमरण की साधना करने वाला यदि स्वयं आचार्य है और उस आचार्य को यह ज्ञात हो जाए कि उसकी आयुष्य स्वल्प है, उसने दीर्घ संयम-पर्याय का पालन किया है, उसने शिष्यों को वाचना भी दी है और योग्य शिष्य-समुदाय तैयार कर दिए हैं, अब उसे आत्म-साधना में लग जाना चाहिए, तब वह अपने गच्छ की ना के लिए, या परम्परा का निर्वाह करने के लिए अपने योग्य शिष्य को बुलाकर, अपने बाईं ओर बैठाकर उसके शीश पर वासक्षेप डालता है और उस शिष्य से कहता है कि "तुम संगठित होकर कार्य करना तथा इस संघ को आगे बढ़ाने में प्रमाद मत
। संघ का संचालन सव्यवस्थित ढंग से करना। स्वाध्याय में सावधान रहना व गच्छ के मुनियों के प्रति वात्सल्यमय स्नेही होना। जो आलसी घर में लगी आग का क्षमन नहीं करता, वह दूसरों के घर में लगी आग को कब क्षमन कर सकेगा ? तुम ऐसे आलसी व प्रमादी मत बनना | तुम पांच समिति, तीन गुप्ति का यथावत् पालन करते हुए संयम-साधना में आगे बढ़ते रहना। फिर उस प्रधान शिष्य को अपने पद पर आसीन करके सकल संघ को आमन्त्रित कर वह क्षपक आबाल-वृद्ध- सभी से क्षमा याचना करता है और कहता है "स्नेह व राग के वशीभूत होकर मैंने किसी को कद या कठोर वचन कहा हो, तो निःशल्य व निःकषाय होकर क्षमायाचना करता हूँ।
प्रस्तुत कृति के चौदहवें चैत्यवन्दन-द्वार (गाथा 145-162) के प्रारम्भ में यह बताया गया है कि वैराग्य से आपूरित क्षपक गीतार्थ-गुरु के पास चैत्यवंदन-द्वार से अनशन-विधि का उच्चारण करता है और कहता है "इस भयंकर भाव-अटवी को पार करने के लिए योग्य निर्यामक का सहारा लेकर भवसागर को पार करने की इच्छा करता हूँ। तब वह गुरु उस क्षपक. के उत्तम विचारों को सुनकर कहते हैं- "हे क्षपक ! शुभस्य शीघ्रम्, अर्थात् शुभ कार्य में देरी मत करो। तुम चैत्यवंदन करके अतिचारों की आलोचना कर अनशन-व्रत को धारण करो।" तब क्षपक का दृढ़ निश्चय जानकर वह नियापक गुरु के समक्ष अनशन का अवसर जानकर क्षपक को संघ के समक्ष भक्तपरिज्ञा-प्रत्याख्यान करवाता है, तब वह क्षपक हर्षित होकर जिननाथ की स्तुति करके वन्दन करता है और अपने समाधिभाव में स्थिर हो जाता है।
प्रस्तुत कृति के पन्द्रहवें आलोचना-द्वार (गाथा 163-218) के प्रारम्भ में यह बताया गया है कि चैत्यवन्दन के पश्चात क्षपक को गीतार्थ-गुरु के समक्ष आलोचना करने के लिये प्रवृत्त होना चाहिए। सद्गरु के उपलब्ध न होने पर अपवादस्वरूप स्थिति में अपने निकटस्थ को गीतार्थ मानकर सभी प्रकार से अपने पूर्वकृत अपराधों को प्रकट करके पापों का प्रक्षालन करना चाहिए, क्योंकि जिनशासन में सशल्य-आराधना से मन की शुद्वि या सिद्धि नहीं होती है। जिस प्रकार एक बालक निष्कपट होकर, सरल हृदय से अपने कृत्य-अकृत्य कायों को सरलतापूर्वक कह देता है उसी प्रकार क्षपक को भी आकस्मिक अज्ञानता से, भय से या राग-द्वेष से, अथवा अन्य किसी कारण से जो कुछ भी अकृत्य किया हो, उसका स्मरण करके उसकी पुनरावृत्ति न करने का प्रण कर उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए तथा मन पर उसका भार नहीं रखन चाहिए। ज्ञानाचार,
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