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________________ साध्वी डॉ. प्रतिभा चिन्तामणि के समान, कामधेनू, व कल्पवृक्ष के समान, जयवन्त तीर्थकर प्रणीत धर्म मेरे लिए शरणभूत हो । प्रस्तुत कृति के अठारहवें दुष्कृत्यगर्हा-द्वार (गाथा 272-300) में यह बताया गया है कि क्षपक चार शरणों को ग्रहण कर दुष्कर दुर्गति के भंजन के लिए अपने दुष्कृत्यों की गर्दा करे और इस प्रकार कहे- अज्ञानता के कारण, कुमति के कारण, इस भव में, अन्य भव में जिन-सिद्धान्त के विरूद्ध जो प्ररूपणा की हो, कुदेव, कुगुरु, कुधर्म का आश्रय लिया हो, तीर्थों का उच्छेद किया हो तथा कुतीर्थों का निर्माण किया हो, ज्ञानादि मार्ग का लोप किया हो, कुतत्त्वों की प्ररूपणा की हो, उन सबकी मैं गर्दा करता हूँ। ज्योतिषशास्त्र, वैदयकशास्त्र, शनशास्त्र, कामशास्त्र आदि कशास्त्रों का यदि निर्माण किया हो, तो मैं उसकी गर्दा करता हूँ। मेरे द्वारा अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं संघ का अवर्णवाद हुआ हो, मैंने शक्ति होते हुए भी धर्मकार्य नहीं किया हो, तो मैं उसकी गर्दा करता हूँ । आगे क्षपक अपने दुष्कृत्यों की निन्दा करते हुए कहता है- मैंने जिन-भवन को गिराया हो, जिन-प्रतिमाओं को खण्डित किया हो, गलाया हो, धर्म-ग्रन्थों का विक्रय किया हो, तो मैं उसकी निन्दा करता हूँ। मेरे द्वारा अतिचार, अनाचार, प्रमाद का सेवन किया गया हो, उत्सूत्र-प्ररूपणा की गई हो, ज्ञान-दर्शन-चारित्र की साधना में जो अतिचार लगे हों, अज्ञानतावश उसकी आलोचना न की हो, उनका प्रायश्चित्त नहीं किया हो, तो मैं उन सब पापों की निन्दा करता हूँ। मेरे द्वारा पूर्व में व्यक्त हाथी, घोड़े, ऊँट, वृषभ, जन-समूह, युवती, धन-सम्पत्ति, आभरण, वस्त्रादि का संग्रह किया गया हो, उसी प्रकार पूर्व में व्यक्त ग्राम, ग्राम-समूह, नगर, आश्रम, खेड़ा (कस्बा), कर्बट (बुरा शहर) का तथा लोह, ताम्र, रांगा, सीसा, आदि धातुओं का पुनः संचय किया हो, अथवा मेरे द्वारा इस जन्म में तथा अन्य जन्मों में निमित्त से नाना प्रकार के उपवनों आदि की जो हिंसा हुई हो, तो उसकी मैं गर्दा करता हूँ। खेत, गुल्मवाड़-वाड़ी तथा सन का खेत, गुलिक खेत, धर्मार्थ तरूरोपण आदि में हुए हिंसक कार्यों की भी मैं त्रिविध रूप से आलोचना करता हूँ । प्रपा, सभा, कूप, सरोवर, सारणि (नहर), पुष्करणि आदि मेरे द्वारा निर्माण करवाकर जनहित में समर्पित की गई, उनमें हुई हिंसा की आलोचना करता हूँ। हल, दांतली, घाणा-घाणी तथा यंत्र खरल, मिस-बट्टा, ऊखल, मुसल, चूल्हा-चूल्ही, प्रासाद, हाट, खाट, सिंहासन, शय्या, चंवर, भद्रासन आदि बनाए हों, सुखासन, वाहन रथ, रथयान, जहाज, नौका, गाड़ी आदि यंत्र तथा शकट, जलयात्रा के लिए जलयान, शिला, भाला, तलवार, तूणीर, धोकनी, श्रृंगी, धनुष, काष्ठ-वारणी, फलक, ओढन, बडिश (मछली पकड़ने का काँटा), जाल-बागुरा (मृगादि फंसाने का फंदा), भक्खल, पाश व अहिल्ला, इंजीर, नकुल, सांकल, बेड़ी आदि अनेक हिंसक उपकरण जो मेरे द्वारा इस जन्म में और अन्य जन्म में बनवाए गए या मेरे द्वारा उनकी अनुमोदना एवं प्रशंसा की गई हो, तो उन सबका मैं तीन करण तीन योग से त्याग करता हूँ। अन्य भी, जिनेश्वर भगवान् की आज्ञा के विरुद्ध जो भी कार्य किए हों, उन सबका प्रायश्चित्त करता हूँ। प्रस्तत कति के उन्नीसवें सकतानमोदना-द्वार (गाथा 301-349) में यह बताया गया है कि प्रस्तुत क्षपक अब इस प्रकार निवेदन करता है- मैंने दुष्कृत्यों की आलोचना की, कर्मों को क्षय कर अब मैं सुकृत्यों की अनुमोदना करता हूँ। मैं जिनेश्वर भगवान् जो चौंतीस अतिशय, आठ महाप्रतिहार्य से युक्त हैं, उनकी शरण ग्रहण करता हूँ। मैं अनन्त सिद्ध भगवान्, जो अनन्त ज्ञान-दर्शन-सुखवीर्य से संयुक्त हैं, उनकी अनुमोदना करता हूँ। मैं आचार्य भगवान् के छत्तीस गुणों की अनुमोदना करता हूँ। वे पाँच आचार के पालक एवं छत्तीस गुणों से युक्त हैं। मैं उपाध्याय भगवान् के गुणों का वर्णन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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