SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन जैन-धर्म की समाधिमरण की अवधारणा, जिसका समग्रता से प्रतिपादन प्राचीनाचार्य विरचित आराधना-पताका में हुआ है, वह हमें यह सिखाती है कि जीवन और मरण – दोनों ही स्थितियों में हम अपनी चित्तवृत्ति का समत्व बनाए रखें तथा मृत्यु के इस सत्य को सहजता से स्वीकार करने का प्रयत्न करें, ताकि मृत्यु भी एक महोत्सव बन सके । 211 समाधिमरण की अवधारणा हमें यही सिखाती है कि यदि मृत्यु अपरिहार्य है, तो फिर इसे सम्मुख देखकर विचलित होने की क्या आवश्यकता है ? वह तो शरीरजन्य दुःख और पीड़ाओं से मुक्ति का अवसर है और अनासक्त साधक के लिए शरीर के इस पिंजरे से उन्मुक्त होकर उड़ जाना है, वह तो शरीर की कैद से मुक्ति का या स्वतंत्र होने का पावन प्रसंग है, फिर उसके लिए दुःख और विकलता क्यों ? इस प्रकार, हम देखते हैं कि समाधिमरण की अवधारणा मनुष्य को एक सम्यक् समझ प्रदान करती है, और मृत्यु को भी एक महोत्सव के रूप में परिणत कर देती है । उसकी यह प्रासंगिकता एक त्रैकालिक सत्य है । समाधिमरण आत्महत्या नही है जैन-धर्म में सामान्यता समाधिमरण केवल उसी स्थिति में ग्रहण किया जा सकता है, जब वृद्धावस्था में देह के पूर्ण रूप से अक्षम हो जाने पर तथा मृत्यु की सन्निकट उपस्थिति प्रतीत हो । सामान्यतया, इस अवस्था में अनशनपूर्वक देहत्याग किया जाता है, अतः समाधिमरण आत्महत्या से भिन्न है । समाधिमरण का दूसरा विकल्प यह है कि जब व्यक्ति को यह लगे कि उसके प्राण संकट में हैं और दूसरों के द्वारा वह तात्कालिक रूप से मारा जा सकता है और उसके जीवित बचने की सम्भावनाएं प्रायः समाप्त हो चुकी हों, ऐसी स्थिति में वह सागारी - समाधिमरण स्वीकार कर सकता है इसे 'आतुर प्रत्याख्यान' भी कहा गया है, किन्तु इस स्थिति में समाधिमरण के साधक को यह अधिकार होता है कि यदि वह प्राणघातक स्थिति से बच जाता है, तो उसे पुनः सामान्य जीवन जीने का अधिकार प्राप्त होता है। यह आपवादिक- स्थिति में लिए गए समाधिमरण की स्थिति का सूचक है। जैन - परम्परा में अंतकृत्दशा - आगम में सेठ सुदर्शन द्वारा इस प्रकार से समाधिमरण ग्रहण करने का उल्लेख है । सामान्यतया जैन परम्परा में अग्निप्रवेश, गिरिपतन, विषभक्षण आदि के द्वारा समाधिमरण प्राप्त करने को उचित नहीं माना गया है। जैन- परम्परा के अनेक ग्रन्थों में इसकी आलोचना की गई है, किन्तु विशेष परिस्थितियों में इस प्रकार से भी समाधिमरण किया जा सकता है, जैसे- जब किसी स्त्री को शीलभंग की अवस्था से अपरिहार्य रूप से गुजरना पड़े, तो वह अपने शील की रक्षा के लिए शस्त्रघात, विषभक्षण आदि के माध्यम से भी देहत्याग कर सकती है। इसका उदाहरण है चन्दना की माता, दधिवान की पत्नी धारणी। दूसरे, जब किसी व्यक्ति को अपमान की पराकाष्ठा के साथ गुलाम होकर अनैतिक कार्यों को करने के लिए विवश किया जाए, तो वह धर्मभ्रष्टता से बचने के लिए अपने प्राण उत्सर्ग कर सकता है। संक्षेप में कहें, तो जब नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों एवं जीवन-रक्षण में केवल एक की ही संभावना हो, तो ऐसी स्थिति में आध्यात्मिक, नैतिक और धार्मिक मूल्यों के संरक्षण के लिए देहत्याग किया जा सकता है। सामान्यतया, जैन-परम्परा में सती-प्रथा और जौहर का समर्थन नहीं देखा जाता, किन्तु यदि चारित्रिक मूल्यों के संरक्षण के लिए यदि कोई स्त्री ऐसा करती है, तो उसे अनुचित भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि जैन-धर्म में चारित्रिक, नैतिक, धार्मिक और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy