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साध्वी डॉ. प्रतिमा
शर्त।" वह व्यक्ति चला, हाथ में कटोरा है और पूरा ध्यान कटोरे पर। एक-एक कदम फूंक-फूंक कर रख रहा है। अन्तःपर में प्रवेश करता है। दोनों तरफ रूपसी रानियाँ खडी हैं। परे महल में मानो सौन्दर्य छिटका हुआ है। कहीं संगीत, तो कहीं नृत्य चल रहा है, लेकिन उसका ध्यान कटोरे पर अचल है। वह चलता गया, बढ़ता गया और देखते-ही-देखते पूरे अन्तःपुर की परिक्रमा लगाकर चक्रवर्ती भरत के पास वापस आ पहुँचा। वह पसीने से तर-बतर था, बड़ी तेजी से हाँफ रहा था। चक्रवर्ती भरत ने पूछा- "बताओ मेरी सबसे सुन्दर रानी कौन सी है?" जिज्ञासु बोला- "महाराज आप रानी की बात पूछ रहे हैं? कैसी रानी ? कहाँ की रानी ? किसकी रानी ? मुझे कोई रानी नहीं दिखाई दे रही थी। मझे तो कटोरे में अपनी मौत दिखाई दे रही थी। सैनिकों की चमचमाती नंगी तलवारें दिख रही थीं।
वत्स! बस, यही तुम्हारी जिज्ञासा का समाधान है, तुम्हारे सवाल का जवाब है। जैसे तुम्हें अपनी मौत दिख रही थी, रानियां नहीं, रानियों का रूप-रंग सौन्दर्य नहीं और इस बीच रूपसी रानियों को देखकर तुम्हारे मन में कोई पाप या विकार नहीं उठा, वैसे ही मैं भी हर पल अपनी मृत्यु को देखता हूँ। मुझे हर पल मृत्यु की पदचाप सुनाई देती है और इसलिए मैं इस संसार की वासनाओं के कीचड़ से ऊपर उठकर कमल की तरह खिला रहता हूँ, राग-रंग में भी वैराग की चादर ओढ़े रहता हूँ। इसी कारण मुझे माया प्रभावित नहीं कर पाती। जीवन की चादर को साफ, स्वच्छ और ज्यों-की-त्यों रखना है, तो इसके लिए एक ही सूत्र है और वह है- मृत्युबोध और इसी अनासक्त या निष्काम जीवन-शैली के विकास से आधुनिक विश्व की समस्याओं से मुक्ति सम्भव है। आज मनुष्य मृत्यु को भुला बैठा है। वह अपनी सारी योजनाएँ इस प्रकार बनाता है कि वह अजर-अमर है। भोगाकांक्षा और तृष्णा का विकास इसी गलत अवधारणा से होता है। समाधिमरण की अवधारणा हमें 'मृत्यु' की सत्यता के प्रति सजग करती है। इस प्रकार, समाधिमरण की साधना, अर्थात् मृत्यु का सजगतापूर्वक स्मरण वैश्विक-समस्याओं के निराकरण में आज भी प्रासंगिक है।
भोग के साधनों की आपाधापी की जो प्रक्रिया आज मानव-जाति में चल रही है, उसके कारण मानव अशान्त बना हुआ है। मानव का यह अशान्त रहना ही समाधिमरण की अवधारणा की प्रासंगिकता को सिद्ध करता है। समाधिमरण की अवधारणा हमें यह बताती है कि जो छटने वाला है, जिसका वियोग निश्चित है, उसके लिए इतना विकल होने की क्या आवश्यकता है ? यदि समाधिमरण के सिद्धान्त के माध्यम से मानव-जाति इस सत्य को समझ ले कि संयोगों का वियोग आवश्यक है और जिनका वियोग अपरिहार्य है, उन पर ममत्व का आरोपण अनुचित है, तो वर्तमान में भोग के साधनों पर अधिकार जमाने की जो आपाधापी चल रही है, वह समाप्त हो सकती है और यही समाधिमरण की अवधारणा की प्रासंगिकता होगी।
समाधिमरण की अवधारणा हमें यही सिखाती है कि हम संयोगों के वियोग की अपरिहार्यता के इस सत्य को समझें और जीवन में उस सामान्य सिद्धान्त को स्वीकार करें कि चाहे सुख हो या दुःख, कोई भी स्थाई नहीं है, ऐसी स्थिति में हमें भोगों के साधनों की उपलब्धि में न तो अहंकार होगा और न संयोगों के वियोग में विकलता होगी। यदि जीवन में सुख और दुःख -दोनों ही स्थाई नहीं रहने वाले हैं, तो हम फिर अनुकूल संयोगों की उपलब्धि में उन्मत्त क्यों बनें ? और प्रतिकूल संयोगों की स्थिति में व्याकुल क्यों बनें ? समाधिमरण इसी सत्य को उजागर करता है। यही उसकी उपादेयता है।
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