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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 209 हम न केवल बाह्यपदार्थों को, अपितु इस शरीर को, भी पकड़कर रखना चाहते हैं, जो स्वरूपतः नश्वर है और उसका अन्त अपरिहार्य है। मृत्यु के भय या दुःख का कारण भी यही रहा है। समाधिमरण की अवधारणा वस्तुतः हमें यह सिखाती है कि हम मृत्यु की या वियोग की इस अपरिहार्य सत्यता को समझकर उसे स्वीकार करें। इस प्रकार, हम यह कह सकते हैं कि जैन धर्म में समाधिमरण की जो अवधारणा है, वह मृत्यु की अपरिहार्यता को और संयोगों के वियोग को समझने के लिए और आत्मसात् करने के लिए है, यदि संयोगों का वियोग अपरिहार्य है, तो वियोग के अवसर की उपस्थिति में व्यक्ति को वियोग की अपरिहार्य सत्यता को समझना और स्वीकार करना होगा। जैन-दर्शन की समाधिमरण की अवधारणा इसी सत्य का संकेत करती है और वह मृत्यु या वियोग के क्षणों में भी हमें अविचलित रहने का संदेश देती है तथा यही उसकी प्रासंगिकता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यदि हम विचार करें, तो यह सत्य है कि आज मानव-समाज में उपभोक्तावादी-संस्कृति का विकास हुआ है और मनुष्य भोग के साधनों पर अपना अधिकार जमाने के लिए सतत रूप से प्रयत्नशील बना हुआ है। मानव की यही सोच परस्पर संघर्ष को जन्म दे रही है। आज मानव-जाति में सहयोग और समर्पण की वृत्ति समाप्त हो चुकी है। मनुष्य यह समझ रहा है कि मृत्यु को आना ही नहीं है। यदि उसे मृत्यु की अपरिहार्यता समझ में आ जाए, तो उसकी भोगासक्ति या ममत्ववृत्ति पर विराम लग सकता है, इस सम्बन्ध में कल्पसूत्र की टीका में एक कहानी आती है, जो इस प्रकार है जैन आगमों में उल्लेख मिलता है कि चक्रवर्ती भरत घर में ही वैरागी थे, कीचड़ में कमल की तरह निर्लिप्त निसंग थे, सम्यग्दष्टि थे, परमात्मा के परम भक्त थे। प्रतिदिन देवपूजा, गुरुउपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान - सभी का पालन करते थे। चक्रवर्ती भरत के जीवन की एक घटना है कि एक दिन विप्रदेव ने उनसे पूछा- 'महाराज! आप वैरागी हैं, तो फिर महल में क्यों रहते हैं? और चूंकि आप महल में रहते हैं, तो वैरागी कैसे ? माया के मध्य रहते हए आप किस तरह वैरागी हैं? क्या आपके मन में कोई पाप, विकार और वासना के भाव नहीं आते ?" चक्रवर्ती भरत ने कहा- "विप्रदेव! तुम्हें इसका समाधान मिलेगा, किन्तु पहले तुम्हें एक कार्य करना होगा।" जिज्ञासु ने कहा- कहिए महाराज! आज्ञा दीजिए। हम तो आपके सेवक हैं और आपकी आज्ञा का पालन करना हमारा कर्तव्य है।" भरत ने कहा- "यह पकड़ो तेल से लबालब भरा कटोरा। इसे लेकर तुम्हें मेरे अन्तःपुर में जाना है, जहाँ मेरी अनेक रानियाँ, जो सज-धजकर तैयार मिलेंगी, उन्हें देखकर आओ और बताओ कि मेरी सबसे सुन्दर रानी कौन-सी है ?" भरत की इस बात को सुनकर जिज्ञासु बोला- "महाराज! आपकी आज्ञा का पालन अभी करता हूँ। अभी गया और अभी आया।" तब भरत बोले- "भाई! इतनी जल्दी न करो। पहले पूरी बातें सुन लो। तुम्हें मेरे अन्तःपुर में जाना है - यह पहली शर्त है। तुम्हें सबसे अच्छी रानी का पता लगाना है - यह दूसरी शते है। लबालब तेल से भरा यह कटोरा हाथ में ही रखना है - यह तीसरी शर्त है। तुम्हारे .पीछे दो सैनिक नंगी तलवारें लेकर चलेंगे और यदि रास्ते में तेल की एक बूंद भी गिर गई, तो उसी क्षण ये सैनिक तुम्हारी गर्दन धड़ से अलग कर देंगे - ये है चौथी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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