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________________ 212 आध्यात्मिक मूल्यों का संरक्षण, शरीर के संरक्षण की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण माना गया है, अतः समाधिमरण आत्महत्या से भिन्न है । मरणदान साध्वी डॉ. प्रतिभा सामान्यतया, जैन-दर्शन में अभयदान या जीवनदान की बात विशेष रूप से प्रचलित रही है। उसका अहिंसा का सिद्धान्त इस बात का समर्थक है । जीवन का रक्षण आवश्यक माना गया है, किन्तु क्या विशेष परिस्थितियों में मृत्यु - दान भी किया जा सकता है? यह प्रश्न जैन - चिन्तकों की दृष्टि में सामान्यतया विवादास्पद ही रहा है। यदि हम किसी को जीवित नहीं कर सकते, तो हमें किसी को मारने का अधिकार भी नहीं है, किन्तु वर्त्तमान समय में मृत्युदान नैतिक दृष्टि से एक विचारणीय प्रश्न बना हुआ है । मृत्यु के अभिमुख असह्य वेदना से पीड़ित व्यक्ति को क्या मृत्युदान दिया जा सकता है ? सामान्यतया, यदि व्यक्ति स्वयं मृत्यु नहीं चाहता है, तो ऐसी स्थिति में उसे मारने का किसी को अधिकार नहीं है। महात्मा गाँधी ने जीवननाशक रोग से पीड़ित एवं असह्य वेदना से ग्रसित बछड़े को मृत्युदान दिया था, किन्तु जैन- विचारकों ने उसकी आलोचना ही की । पशु किस स्थिति में अपनी मृत्यु चाहता है, या नहीं चाहता है, यह निर्णय करने का अधिकार व्यक्ति के पास नहीं है, किन्तु जहाँ तक मनुष्य का प्रश्न है, अनेक बार ऐसी समस्याएँ आती हैं कि व्यक्ति स्वेच्छा से मृत्यु चाहता है । मरणांतक असह्य वेदना से पीड़ित व्यक्ति यदि स्व-इच्छा से बिना दबाव के मृत्यु चाहता है तो क्या उसे मरणदान दिया जा सकता है ? विश्व में आज ऐसे अनेक उदाहरण सुनने में या पढ़ने में आते है; जहाँ व्यक्ति असह्य वेदना से पीड़ित होकर अपनी मृत्यु की इच्छा प्रकट करता है और डॉक्टर आदि से मृत्युदान की अपेक्षा करता है। इस स्थिति में, डॉक्टर या चिकित्सक का भी क्या दायित्व है? यह भी एक विचारणीय विषय बना हुआ है। इस सन्दर्भ में अभी अनेक विवादिक-स्थितियाँ बनी हुई हैं। इस स्थिति में जैन-दर्शन का कहना तो यही है कि व्यक्ति को इन कठिन परिस्थितियों में समभावपूर्वक मृत्यु की प्रतीक्षा ही करना चाहिए, किन्तु यदि चित्तवृत्ति का समत्व विचलित होता हो और चित्त में संक्लेश उत्पन्न होता हो, तो ऐसी स्थिति में तात्कालिक रूप से मृत्यु को स्वीकार भी किया जा सकता है। यद्यपि इस सन्दर्भ में हमें जैन-ग्रन्थों में कोई उदाहरण नहीं मिलता है, किन्तु बौद्ध और हिन्दू-साहित्य ग्रन्थों में इस प्रकार की स्थिति में शस्त्रघात, विष प्रयोग आदि देहत्याग का समर्थन किया गया है। माध्यम से इस सन्दर्भ में डॉ. रज्जनकुमार का यह कहना है कि मृत्युदान की इस चर्चा का यही निष्कर्ष निकलता है कि अनिवार्य तथा असाध्य, असह्य वेदना से पीड़ित व्यक्ति को उसकी वेदना से मुक्ति दिलाने वाला तथा उस वेदना से मुक्ति पाने वाला अपराधी नहीं है। इस तरह का मरणदान पाने वाला व्यक्ति मृत्युदान के लिए स्वतंत्र है, किन्तु इसके ठीक विपरीत, जैन – आचार्य महाप्रज्ञ का यह मानना है कि पहाड़ से लुढ़ककर, जल में डूबकर आग में जलकर, फांसी के फन्दें पर झूलकर व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है, इस विधि से प्राप्त मरण कभी भी इष्ट नहीं होता, क्योंकि इसके पीछे भावना समीचीन नहीं होती, आवेग और उत्तेजना से युक्त होने के कारण यह व्यक्ति और समाज – दोनों के लिए अहितकर है। वर्त्तमान समय में ऐच्छिक - मृत्युवरण के क्षेत्र में अनेक प्रश्न उठ खड़े हुए हैं। पहला प्रश्न है - आत्महत्या का दूसरा - सती होने का, तीसरा - राजनीतिक – स्तर पर अनशन का और चौथा - धार्मिक स्तर पर अनशन का । मरणात्मक - घटना इन सबमें समान है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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