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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
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दोनों मुनि आहार लिए बिना ही भद्रा के द्वार से लौट गए। शालिभद्र बड़े चक्कर में थे-'भगवान् की वाणी कभी अन्यथा नहीं होती। माता ने मुझे भिक्षा क्यों नहीं दी ?' दोनों मुनि गुणशीलक उद्यान की ओर जा रहे थे कि मार्ग में उन्हें एक वृद्धा ग्वालिन मिली। उसके सिर पर दही की मटकी थी। शालिभद्र को देख उसका वात्सल्य उमड़ा। उसने दोनों मुनियों को दही बहराया। दही से पारणा कर दोनों महावीर के पास पहुँचे तो शालिभद्र ने कहा- "प्रभो मुझे माता के यहाँ से आहार नहीं मिला। एक ग्वालिन ने दही दिया था।"
"वह ग्वालिन ही तुम्हारी माता है," महावीर ने शालिभद्र से कहा- "पूर्वभव में तुम संगम नामक ग्वाला थे और उस बुढ़िया के ही पुत्र थे।" संगम ग्वाले के रुप में महावीर ने शालिभद्र का पूर्वभव सुनाया। यह भी एक विचित्र संयोग था कि धन्ना- शालिभद्र के पूर्वभव मिलते-जुलते थे।
प्रभु के श्रीमुख से पूर्वभव का वृत्तान्त सुनकर, संसार और कर्म की विचित्रता का चिन्तन कर पारणा करके प्रभु से आज्ञा लेकर दोनों मुनि नालन्दा के पास वैभारगिरी पर्वत पर आए। यथाविधि प्रतिलेखना आदि करके पादपोगमन-संथारा ग्रहण कर लिया' और उत्कृष्ट परिणामों के साथ साधना-आराधना कर अन्त समय में समाधिमरण को ग्रहण किया। दोनों मुनि को एक मास का रा आया. शालिभद्रजी काल करके सर्वार्थसिद्धविमान में देव हए और धन्नाजी सीधे मोक्ष में गए।
प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका में आराधना की योग्यता का वर्णन करते हुए चिलातिपुत्र के कथानक का गाथा कमांक 802 में बड़ा ही रोमांचक वर्णन मिलता है।
पृथ्वी प्रतिष्ठितपुर में यज्ञदेव नाम का एक अहंकारी विप्र निवास करता था। एक दिन उसने किसी जैन विद्वान् मुनि से शास्त्रार्थ किया। वाद-विवाद में जब वह हार गया, तो मुनि ने उसे दीक्षा दे दी, परन्तु उसका पत्नी से अत्यधिक लगाव था, उस कारण उसके मन में गृहस्थ-जीवन में आने की इच्छा उत्पन्न हो गई. तब देवी ने उसे मना कर दिया, इससे वह अपने धर्म व संयम में दृढ़ हो गया, किन्तु शरीर एवं वस्त्र पर मैल जमा होने से वह अपने प्रति ग्लानि का भाव रखता था। एक दिन वह मुनि अपनी पत्नी द्वारा दिए गए दूषित आहार को ग्रहण कर कालधर्म को प्राप्त हो गया
और देव बना। पति (मुनि) की मृत्यु के समाचार पाकर पत्नी ने भी संसार से विरक्त होकर संयम ग्रहण कर लिया, लेकिन कुछ समय के उपरान्त वह भी बिना आत्मालोचना किए मृत्यु को प्राप्त हुई और वह भी देवलोक में उत्पन्न हो गई।
साधु जीवन से घृणा करने के कारण यज्ञदेव के उस जीव ने स्वर्ग से च्युत होकर धनसार्थवाह की चिलाती नाम की एक दासी की कुक्षी से पुत्र के रूप में जन्म लिया, इसलिए उसका नाम चिलातीपुत्र रखा गया। यज्ञदेव की पत्नी भी धन्नासार्थवाह के घर में उसके पाँच पुत्रों के बाद पुत्री के रुप में उत्पन्न हुई। उस सेठ धन्नासार्थवाह की पुत्री की सार-संभाल व देख-रेख चिलातीपुत्र करता था। जैसे-जैसे चिलातिपुत्र बड़ा हुआ, वह उच्छृखंल वृत्ति वाला बन गया और
1वेभारपब्बए सालिभद्द घन्नो य पायवोवगया। मासं संलिहिय तणू पत्ता ते दो वि सव्वढे ।।
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आराधनापताका, गाथा-801
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