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साध्वी डॉ. प्रतिभा
बार जब राजा श्रेणिक शालिभद्र के घर पहुंचा, तो सेठानी सुभद्रा ने अपने को धन्य माना कि हमारा स्वामी हमारे घर आया है। बीच की मंजिल में राजा को बिठाकर सेठानी ऊपर शालिभद्र को बुलाने गई और कहा- "बेटा! तुझे राजा बुला रहे है। राजा श्रेणिक तुम्हारे स्वामी हैं, स्वामी तुम्हारे घर आए है।" बिना इच्छा के शालिभद्र श्रेणिक के पास पहुँचा, पर उसे अपनी स्थिति पर बड़ी ग्लानि हुई। वह सोचने लगा, -गुलामी का जीवन भी कोई जीवन है ? मेरे ऊपर मेरा स्वामी है, मैं दासत्व के जीवन से मुक्त होना चाहता हूँ, पर कैसे ? हां, मुनि बनकर मैं किसी का दास नहीं रहूंगा, तब त्रिलोकी का स्वामीत्व मुझे प्राप्त हो जाएगा। सब कुछ त्यागकर मैं महावीर की शरण में चला जाऊँ, पर मेरी बत्तीस पत्नियाँ है, इन्हें एकदम कैसे छोड़ा जाए ? मैं प्रतिदिन एक-एक पत्नी का त्याग करुंगा। जब बत्तीस दिन में बत्तीस पत्नियों का त्याग कर दूंगा, तो श्रमण बन जाऊँगा। शालिभद्र की बहन सुभद्रा धन्ना को ब्याही थी। धन्ना राजगृह में ही रहता था। वह बहुत धनी था, उसके आठ पत्नियाँ थी, जिनमें से एक शालिभद्र की बहन थी। एक दिन धन्ना की आठों पत्नियाँ उसका उबटन कर रही थीं। कोई बांहों को मल रही थी, कोई पैरों में उबटन लगा रही थी। शालिभद्र की बहन अपने पति धन्ना की पीठ पर उबटन लगा रही थी। कुछ ख्याल करके शालिभद्र की बहन को रुलाई आ गई। गरम-गरम आंसू धन्ना की पीठ पर गिरे तो उसने चौंक कर पीछे देखा और पूछने लगा- "क्यों रोती हो, प्रिये? क्या दःख है. तम्हें ?" "मेरा भाई शालिभद्र दीक्षा लेगा. इसीलिए रो रही हूँ।" शालिभद्र की बहन सुभद्रा ने कहा- "वह एक-एक करके अपनी पत्तियों का त्याग कर रहा है। बत्तीस दिन बाद वह श्रमण बन जाएगा।" धन्ना हंसने लगा, हंसकर बोला- "तुम्हारा भाई कायर है, बुजदिल है, त्यागना ही है तो बत्तीस नारियों को एक साथ क्यों नहीं त्याग देता।" सुभद्रा को यह बात चुभ गई। उसने अपने पति धन्ना से कहा- "प्राणनाथ कहना सरल है, करना बहुत कठिन है, आपसे तो यह भी नहीं होगा। धन्ना का पुरुषत्व जाग उठा। तुरन्त उठकर खड़ा हो गया और बोला- "मैं इसी समय तुम आठों रानियों का त्याग कर चला प्रभु की शरण में।" सुभद्रा अवाक् देखती रह गई, फिर बहुत पछताई, अपने व्यंग्य पर। पति के चरणों में गिर पड़ी। बहुत रोई, गिड़गिड़ाई। पर धन्ना नहीं माना। उसने कहा - "मैं कायर नहीं हूँ, सुभद्रा। जो चरण महावीर की ओर उठ चुके हैं, वे अब रुकेंगे नहीं, वीर ही महावीर का रास्ता पा सकता है। तुम्हारे भाई के पास जा रहा हूँ, उसकी कायरता दूर करुंगा। साले-बहनोई, हम दोनों महावीर की शरण में जाएंगे," और चल दिया धन्ना वहाँ से। उसने शालिभद्र को जाकर पुकारा- "अरे कायर, बुजदिल! नीचे उतरो, एक-एक करके त्यागने का ढोंग छोड़ो। मैं आठों का त्याग कर आया हूँ, चलो मेरे साथ। मैं भी महावीर के पास जा रहा हूँ।" शालिभद्र को बहनोई धन्ना की बात जंच गई, उठ गया वह भी, चल दिया धन्ना के साथ। दोनों का वैराग्य उत्कृष्ट था, दोनों जाकर प्रभु के चरणों में दीक्षित हो गए। धन्ना व शालिभद्र ने दीक्षा के उपरान्त श्रमण संघ में मिलकर प्रभु के साथ अन्यत्र विहार किया। दोनों उग्र तपस्या करने लगे। दोनों मुनियों का शरीर कृश हो गया।
धन्ना और शालिभद्र भिक्षा के लिए जाने लगे, तो भगवान् ने शालिभद्र से कहा- "मुने! आज तुम्हें अपनी माता के हाथ से भिक्षा मिलेगी।" भगवान् की बात हृदय में रखकर दोनों मुनि राजगृह नगर में प्रविष्ट हुए और सेठानी भद्रा के घर पहुंचे। सेठानी भद्रा महावीर के दर्शन करने गुणशीलक उद्यान जाने की तैयारी में लगी थी। अपने पुत्र मुनि शालिभद्र और जामाता धन्ना को देखने की भी उसके मन में उत्कट अभिलाषा थी। जाने की जल्दी में उसने द्वार पर खड़े मुनियों को देखा-अनदेखा कर दिया। शरीर कृश होने के कारण भी वह मुनियों को पहचान नहीं पाई।
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