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________________ 186 साध्वी डॉ. प्रतिभा रात-दिन सभी को परेशान करने लगा। उसकी इस उद्दण्डता से परेशान होकर धन्नासार्थवाह ने उसे घर से निकाल दिया। इस तरह, वह इधर-उधर भटकता हुआ चोरों की एक पल्ली में पहुंच गया। वहाँ के लोगों ने उसे पल्लीपति बना दिया। एक बार वह अपने समूह के साथ राजगृह नगर में पहुँच गया। वहाँ के लोगों को अवस्वापिनी-निद्रा मे सुलाकर धन्नासार्थवाह के घर में प्रवेश पा लिया। सभी चोरों ने वहाँ से प्रचुर मात्रा में धन चुराया और वह चिलातीपुत्र सुषमा को लेकर शीघ्र ही अन्य स्थान पर चला गया। सूर्योदय होते ही धन्नासार्थवाह को जब मालूम पड़ा कि उसकी इकलौती पुत्री का चिलातीपुत्र ने अपहरण कर लिया है, तब धन्नासार्थवाह अपने चारों पुत्रों को साथ में लेकर पुत्री की खोज में निकल पड़ा। जैसे ही उनको आते देखा तो चोर भय के मारे सारा धन छोड़कर भाग गए और सुभट लोग धन को लेकर चले गए। धन्ना सार्थवाह और उसके पाँचो पुत्र खोजते-खोजते जब चिलातीपुत्र के पास पहुँचे, उस समय चिलातीपुत्र ने सोचा- 'यह सुषमा मेरे पास न रहे, तो मैं इसे किसी के पास भी नहीं रहने दूंगा। ऐसा सोचकर चिलातीपुत्र ने उसका गला काट दिया और उसके मस्तक को लेकर भाग गया। आगे जंगल में भागते-भागते एक वृक्ष के नीचे मुनि को देखा और उनके पास जाकर बोला- "हे मुनि! मुझे संक्षेप में धर्म का मर्म समझाओ, अन्यथा मैं आपका भी मस्तक कबीट फल के समान फोड़ दूंगा।" मुनि निर्भीकता से सब कुछ सुनते रहे, एक क्षण विचार किया, फिर ज्ञान से जाना कि ये जीव भवी है. मेरे निमित्त से ही इसका कल्याण श्रेयस्कर है। ऐसा जानकर मुनि ने तुरन्त कहा- "उपशम, विवेक और संवर - इन तीन पदों में ही सम्पूर्ण धर्म का सार छुपा हुआ है। चिलातीपुत्र इन तीन पदों को स्वीकार कर एकान्त में जाकर सम्यक् रुप से चिन्तन मनन करने लगा। क्रोधादि कषायों का उपशम क्षमा, नम्रता आदि गुणों का सेवन करने से हो सकता है, अतः तलवार और मस्तक से मुझे क्या लेना-देना ? यह सोचकर उन्हें त्याग दिया, यही विवेक है एवं मन और इन्द्रिय के विषयों की निवृत्ति ही संवर है। इस प्रकार बार-बार तीन पदों का चिन्तन करता हुआ उसकी गहराई में डुबकी खाने लगा और उसी स्थान पर मेरुपर्वत के समान निश्चल कायोत्सर्ग-ध्यान में खड़ा हो गया। उसके शरीर पर लगे खुन की दुर्गन्ध से असंख्य चीटियाँ आकर चारों ओर से उसका भक्षण करने लगी तथा उसके शरीर को छलनी-छलनी कर डाला। इस तरह ढाई दिन तक महाभयंकर कष्ट को समता भाव से सहन कर उत्तम चारित्रवाले उस साधक (महामुनि) ने सहस्रार नामके आठवें देवलोक में जन्म प्राप्त किया। इस प्रकार अत्यन्त उग्र मन, वचन और काया द्वारा पाप करने वाला नरक का अधिकारी भी आराधना के द्वारा स्वर्ग-सुख का अधिकारी बन सकता है। इस प्रकार, प्राचीनाचार्यकृत आराधनापताका में भी सामान्यतः वैराग्यगर्भित (संवेगयुक्त) जीवों को समाधिमरण की आराधना के योग्य बताते हुए इस सन्दर्भ में चिलातीपुत्र की कथा प्रस्तुत की गई है। यही कथा संवेग रंगशाला में भी कथानक के रुप में वर्णित की गई है। यह कथा आवश्यकचूर्णि (भाग 1, पृ. 497-498). आचारांगचूर्णि (पृ. 139), आवश्यकनियुक्ति (गाथा, 73), व्यवहारसूत्रभाष्य (10-594), ज्ञाताधर्मकथा जो तिपयपत्तसत्तो कीडीहिं चालणि व्व कयगत्तो। वीसपहरेहिं पत्तो सहसारे सो चिलापत्तो ।। आराधनापताका, गाथा - 802 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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