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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
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परिस्थितियों में व्यक्ति द्वारा किए गए मृत्युवरण की प्रशंसा सर्वत्र की जाती है तथा इसकी सहमति ईसाई-परम्परा के साथ-साथ अन्य परम्पराओं में भी दी गई है।
इन विकट परिस्थितियों में किया गया मृत्युवरण जैन धर्म में वर्णित समाधिमरण के समान ही प्रशंसनीय एवं स्वीकार करने योग्य है। इसके विरुद्ध किसी तरह का आक्षेप नहीं लगाया जा सकता है, लेकिन मृत्युवरण करने वाला व्यक्ति प्रशंसा का पात्र तभी बनता है, जब कुछ विशेष परिस्थितियों में देहत्याग करता है, जैसे- असाध्य बीमारी आने पर, जब जीवित रहना सम्भव न हो पाए, चारों तरफ से अग्नि में फंस जाए, डूबने जैसी स्थिति हो जाए, दुष्ट लोगों के बीच फंस जाए, हिंसक पशुओं के बीच घिर जाए। ऐसी परिस्थिति में प्राणी देहत्याग का निर्णय करता है, तो उसका यह देहत्याग प्रशंसा के तुल्य है।
माण्टेस्क्यू कहते हैं कि मृत्युवरण व्यक्ति का अधिकार है। प्लिनी भी मृत्युवरण का समर्थन करते हुए कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति मृत्युवरण या आत्मबलिदान करने का साहस रखता है तथा जब भी उसे अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने में प्रसन्नता का अनुभव हो, वह अपनी शक्ति का प्रयोग बेहिचक कर सकता है। युद्धस्थल पर अपने शील के रक्षार्थ, धर्म से पतित हो जाने की अपेक्षा व्यक्ति देहपात करे तो क्या उसके मृत्युवरण को प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता है ? क्या ऐसी विकट परिस्थितियों में देहत्याग न करके धर्म से भ्रष्ट हो जाना चाहिए ?
डायगलायर्ट के अनुसार व्यक्ति विशेष परिस्थितियों में मृत्युवरण कर सकता है। अपने देश के लिए साथियों के लिए, - इन परिस्थितियों में उसके द्वारा किया गया मृत्युवरण आदर्श-अवस्था का सूचक है, वह सभी का आदरणीय बन जाता है।
व्यक्ति को अपनी शक्ति के प्रयोग करने की स्वतंत्रता मिलनी ही चाहिए, अन्यथा वह शक्ति से युक्त होकर भी शक्तिहीन ही माना जाएगा, अतः स्पष्ट है कि साधारण परिस्थिति में ईसाई धर्मगुरुओं ने मृत्युवरण या आत्म-बलिदान का समर्थन नहीं किया है, तथापि कुछ विशेष परिस्थितियों में मृत्युवरण का समर्थन किया है। उदाहरणस्वरूप ईसाई-धर्मग्रन्थों में उन स्त्रियों की अत्यधिक प्रशंसा की गई है, जिन्होंने अपने सतीत्व के रक्षार्थ देहत्याग किया था।
ईसाई धर्मगुरुषों ने उन स्त्रियों के मृत्युवरण की प्रशंसा तो की है, साथ ही उन्होंने उनके साथ दयालुता का प्रदर्शन भी किया है एवं उन्हें बहुत ही उच्च स्थान प्रदान किया है। उन्हें सन्तों की श्रेणी में रखकर उनके प्रति असीम आदर के भाव को प्रदर्शित किया है। उपर्युक्त चिन्तन के आधार पर समाधिमरण. और ईसाई धर्म के मृत्युवरण में पाए जाने वाले अन्तर पर प्रकाश डाला जाना चाहिए।
समाधिमरण में जहाँ स्पष्टतया इस बात पर बल दिया गया है कि मृत्युवरण व्यक्ति केवल अनशनपूर्वक करता है, वहीं ईसाई धर्म में मृत्युवरण के लिए किसी तरह का स्पष्ट निर्देश नहीं है। इसमें व्यक्ति पर ही यह छोड़ दिया गया है कि वह मृत्युवरण के लिए कौनसा पथ अपनाए।
अतः, इस दृष्टि से समाधिमरण और ईसाई-धर्म के मृत्युवरण में काफी भिन्नता दृष्टिगत होती है, लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों, जिसके कारण व्यक्ति देहत्याग करता है, उन पर विचार किया जाए तो कुछ समानताएँ भी दृष्टिगोचर होती हैं, क्योंकि ईसाई धर्म में भी स्पष्ट रूप से कहा गया है कि व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों में धर्म के रक्षार्थ, सतीत्व की रक्षा के लिए देहत्याग कर
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