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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
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विवेचन किया गया है इस पुराण के अनुसार काशी (वर्तमान वाराणसी) में जो इच्छित-मरण या आत्मबलिदान किया जाता है, वह अविमुक्त के नाम से जाना जाता है।'
काशी भगवान शंकर का प्रिय क्षेत्र है। यहाँ इच्छित-मृत्युवरण करने वालों को स्वयं भगवान् शंकर मुक्ति दिलाते हैं। इस पुराण के अनुसार काशी में व्यक्ति को आग में जलकर, काशी-करवट लेकर, पानी में डूबकर, या अनशन करके अपने प्राण का त्याग करना चाहिए। ऐसा करने से व्यक्ति मुक्ति को प्राप्त करता है।
शिवपुराण के अनुसार जो व्यक्ति शिव की भक्ति करते हुए आग में जलकर, पहाड़ की चोटी से गिरकर मरता है वह युक्ति पा लेता है। व्यक्ति अपने आप से मुक्ति पाने के लिए हवन-कुण्ड बनाता है। उसमें अग्नि प्रज्ज्वलित करता है तथा भैरव की प्रतिमा की पूजा करता है। अब व्यक्ति यज्ञ की उस अग्नि में हवन के रूप में स्वयं को समर्पित कर देता है। अपरार्क ने आदिपुराण से भी सन्दर्भ लेकर यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि ऐच्छिक देहत्याग पाप नहीं है।
आदिपुराण में अनशन, अमरकंटक की चोटी से गिरकर, अग्निप्रवेश करके, वटवृक्ष से कूदकर आदि विधियों की सहायता से इच्छितमरण करने का निर्देश है। उपर्युक्त समस्त विधियों की प्रशंसा करते हुए अपरार्कसंहिता में कहा गया है कि उक्त विधि से मरण करने से पाप नहीं होता है, बल्कि व्यक्ति उसकी सहायता से जन्म-मरण के बन्धन से छूट जाता है। प्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत में भी आत्महत्या की निन्दा करते हुए इसे पाप माना गया है। आदिपर्व के अनुसार आत्महत्या पाप है। आत्महत्या करने वाला व्यक्ति कभी भी स्वर्ग को प्राप्त नहीं कर सकता है, किन्तु महाभारत के वनपर्व में महाप्रस्थान की चर्चा की गई है और यह लिखा गया है कि व्यक्ति को महाप्रस्थान-व्रत लेना चाहिए तथा उसे गंगा, यमुना के संगम स्थल पर जल में डूबकर, आग में जलकर, ऊँचाई से कूदकर देहत्याग करना चाहिए। शल्यपर्व में कहा गया है कि जो व्यक्ति
'मत्स्य पुराण 76/75 अविमुक्तं प्रसादेन विमुक्तो जायते यतः । काशी खण्डव, 77 श्लोक-25 उद्धृत - काशी मोक्षनिर्णय, शिवानंद सरस्तती धर्मसंघ शिक्षा मण्डल दुर्गाकुण्ड वाराणसी पृ. 5 2 वाराणसी तु भुवनत्रयसारभूतारम्या सदा मम पुरि गिरिजापुत्रि अत्रागता विविध दुष्कृत कारिणोऽपि
पापक्षया द्विरजसः प्रतिभान्तिमाः । – मत्स्य पुराण, 76/78 'शिशानाले क्षिपेत कायं तं पातं भैरवप्रदम पतड् गोदेयार्थ पाता वाऽऽत्मभातावता द्विजे तथा ते फलदाः सर्वे क्रमतो भैरवं प्रदम् भवनानि विचित्राणि असंख्येयानि संख्यया।। शिवपुराण,
- उद्धृत तीर्थविवेचन कांडम, पृ. 262 4 तथा च ब्राह्यगर्भः यो जीवितं न शक्नोति महात्याध्युपपीडित.......... महाप्रस्थान गपनं ज्वलनाम्बुप्रवेशनम् । भृगुतनं चैव वृथा नेच्छत्तु जीविकम्।
- अपकरार्क की टिप्पणी, याज्ञवल्क्यस्मृतिः, पृ. 536 आदिपर्व 19/20 ° चतुर्विधे च यत्पुण्यं सत्यवादिषु चैव यत।
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