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________________ 160 साध्वी डॉ. प्रतिभा सरस्वती नदी के तट पर मन्त्रोचार के साथ देहत्याग करता है, वह मरने के बाद होने वाली पीड़ा को नहीं भोगता है।' महाभारत के अनुशासन-पर्व में कहा गया है कि जो व्यक्ति वेदों का ज्ञाता है, यदि वह जीवन की नश्वरता और क्षणभंगुरता को जानकर हिमालय की चोटी पर भूखे रहकर अपने प्राणों का त्याग करता है, तो वह ब्रह्मलोक में निवास करता है और सभी प्रकार के दुःखों से मुक्त हो जाता है। वाल्मिकी रामायण में भी शरभंगमुनि के इच्छित-मरण का प्रसंग आया है। शरभंगमुनि ने स्वेच्छापूर्वक अग्नि में प्रवेश करके देहत्याग किया और दिव्यलोक को प्राप्त किया था। इसी प्रकार, लक्षमण ने भी स्वेच्छापूर्वक मरण किया था। राजा राम के आदेश के अनुसार लक्ष्मण को देश-निकाले का दण्ड मिला। लक्ष्मण राम के आदेशानुसार देश से बाहर जाने को उद्यत हुए, लेकिन राम से अलग रहना लक्ष्मण के लिए असह्य था। इसी कारण, लक्ष्मण ने सरयू नदी में जलसमाधि लेकर इच्छापूर्वक मृत्यु का वरण किया था। लक्ष्मण के इच्छित-मरण प्राप्त करने पर राम को अपने जीवन से विरक्ति हो गई। उन्होंने अपने भाई भरत और शत्रुघ्न के साथ सरयू नदी में जलसमाधि लेकर इच्छापूर्वक मृत्यु का वरण किया था। इस घटना को सुनकर रामराज्य के समस्त नागरिकों ने भी सामूहिक रूप से सरयू नदी के जल में प्रवेश करके इच्छित-मरण किया था। यह उल्लेख वाल्मिकी रामायण में है, किन्तु जैन रामकथा इसे स्वीकार नहीं करती है। ब्राह्मण-परम्परा में महाप्रस्थान के रूप में इच्छितमरण का प्रसंग विवेचित है। महाप्रस्थान का अर्थ होता है- दुबारा लौटकर घर या संसार में नहीं आना। महाप्रस्थान लेने से पहले व्यक्ति को तप, यज्ञ तथा इसी तरह के अन्य धार्मिक अनुष्ठान करना पड़ते हैं। महाप्रस्थान को लेकर श्री नारायण भट्ट, मित्र मिश्र और श्री लक्ष्मीधर आदि के विचारों में मतैक्य है। इनके अनुसार, महाप्रस्थान स्नात एव तदाप्नोति गंगा, यमुन संगमे।। वनपर्व, 85/85 सरस्वत्यत्तरे तीरे यस्त्यजेदात्मनस्तम। पृथूदके जप्यपरो नैनं श्वोमरणं तपेत्।। शल्यपर्व, 39/33 शरीरमृत्सृजेत् तत्र विधिपूर्वकमनाशके। अधुवं जीवितं ज्ञात्वा यो वै वैदान्तगो द्विजः ।। अनुशासन-पर्व 21/63 एवं 25/64 3 दृष्टमेतन्महावाहो क्षयं ते रोमहर्षणम् । लक्ष्मणेन- वियोगश्च तव राम महायशः।। -वही, उत्तरकाण्ड (106/8) 4 ततोऽग्निं स समाधाय हत्वा चाज्येन मन्त्रवत। शरभंगो महातेजाः प्रविवेश हुताशनम्।। रामायण (अरण्य.) 5/38 'तां नदीमाकुलावर्ती सर्वत्रानुसरन्नृपः । आगतः सप्रजो रामस्तं देशं रघुनन्दनः।। -वही, 110/2 एवं विशेषदृष्टव्य -दी हिस्ट्री ऑप सुसाइड इन इण्डिया, पृ. 52 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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