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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
कम कर लेते हैं। संसार के सम्पूर्ण तीर्थों में घूमने का जो लाभ उनको मिलता है, वही लाभ क्षपक का अगर एक बार दर्शन कर ले, तो उससे भी मिल जाता है'
जो व्यक्ति क्षपक की सदा सेवा करता है, उस व्यक्ति की साधना-आराधना, पूजा आदि निर्विघ्न समाप्त हो जाती है और वह मुक्ति को प्राप्त करता है ।
जैन - परम्परा में उपलब्ध समाधिमरण सम्बन्धी इन विवरणों के पश्चात् अब हम अन्य परम्पराओं में समाधिमरण की क्या अवधारणा रही है, इसकी चर्चा करेंगे।
वैदिकधारा और समाधिमरण
भारतीय धर्मों में वैदिक या बाह्मण परम्परा प्राचीन है। इसमें मृत्युवरण की यह अवधारणा किस रूप में प्रचलित रही है, इस सम्बन्ध में प्रोफेसर काणे ने अपने ग्रन्थ धर्मशास्त्र का इतिहास के तृतीय भाग में विस्तार से मृत्युवरण के अनेक सन्दर्भों का उल्लेख किया है। उसी को आधार बनाते हुए डॉ. रज्जनकुमार ने अपने ग्रन्थ 'समाधिमरण' में भी इसकी विस्तृत चर्चा की है। हम यहाँ इन दोनों ग्रन्थों के आधार पर मूल सन्दर्भों का उल्लेख करते हुए यह बताने का प्रयास करेंगे कि ब्राह्मण - परम्परा में मृत्यु - वरण की यह अवधारणा जैन दर्शन में प्रतिपादित समाधिमरण की अवधारणा से किन अर्थों में समानता रखती है और किन अर्थों में भिन्नता रखती है। अग्रिम पृष्ठों पर उन सन्दर्भों का उल्लेख करते हुए इस सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा करेंगे ।
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सामान्यतया, आत्महत्या की सहमति ब्राह्मण - परम्परा में भी देखने को नही मिलती है। इसमें आत्महत्या या आत्म–बलिदान को हेय दृष्टि से ही देखा गया है। लेकिन कुछ विशिष्ट धार्मिक अनुष्ठानों और कुछ विशेष परिस्थितियों में आत्म बलिदान की सहमति भी प्रदान की गई है और इसे हेय दृष्टि से भी नहीं देखा गया है । ब्राह्मण - परम्परा के धर्म-ग्रंथों में आत्महत्या एवं आत्मबलिदान को पाप माना गया है और इसका निषेध भी किया गया है, किन्तु मनुस्मृति में कहा गया है कि आत्महत्या करने वाले व्यक्ति का श्राद्ध नहीं करना चाहिए, साथ ही उसकी आत्मा की तृप्ति के लिए जल भी नहीं देना चाहिए ।
धर्मशास्त्र का इतिहास के रचयिता डॉ. काणे ने सम्वर्त्त - स्मृति आधार पर आत्महत्या को पाप कहा है और लिखा है कि आत्महत्या करने वालों के लिए दुःख नहीं करना चाहिए। वह राक्षसों के आश्रित होता है और उसी के कुल में पैदा होता है। इस प्रकार, सामान्यतया ब्राह्मण - परम्परा में आत्महत्या की भर्त्सना ही की गई लेकिन कुछ उल्लेख ऐसे भी उपलब्ध हुए हैं, जिनमें आत्मबलिदान की प्रशंसा की गई है, तथा उसके प्रति सहमति भी व्यक्त की गई है। मनुस्मृति में
1 भगवती आराधना - 1995-2003
2 धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग 3, पृ. 1333-1336
3 'वृथा संकरजातानां प्रव्रज्यासु च तिष्ठताम् ।
आत्मनस्यागिनां चैव निवर्तेतोदकक्रिया ।। मनुस्मृति, 5 / 89
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उद्धत, धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग-1, पृ. 10
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